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________________ जैनधर्म-मीमांसा म्बित समझ से वास्तविक चिकित्सापर उपेक्षा हो जाती है । सच्चा प्रतीकार न होनेसे रोग भयङ्कर हो जाता है और ऐसी सैकड़ों घटनाएँ प्रतिदिन होती रहती हैं । इतना ही नहीं, इसी मूढ़ताकी वेदीपर सैकड़ों बच्चोंका बलिदान होता रहता है । इस प्रकार यह मूढ़ता जिनके पास है उन्हें दुःखदायी है, उनके आश्रित बच्चों तथा अन्य कुटुम्बियों का बलिदान लेनेसे उन आश्रितोंको दुःखदायी है, तथा जो, पड़ौसी या परिचित, मूढ़तावाले पुरुषोंकी बातपर विश्वास करते हैं उनको दुःखदायी है । इस तरह यह स्व-पर-दुःखदायी है; इससे यह अधर्म है, मूढ़ता है। प्रश्न - देवपूजा आदिसे रोग-शान्तिकी बात अकारणक नहीं है क्योंकि देवपूजा आदिसे पुण्यका बन्ध होता है और पुण्यबन्धसे पापका नाश होता है । जब पापरूप कारणका नाश हो गया तब दुःखरूप कार्यका भी नाश होगा । इस तरह देवपूजा रोगादि दुःखनाशक है । उत्तर - देवपूजा दिसे भविष्यके दुःखका नाश हो सकता है, वर्तमानका नहीं । देवपूजादिसे पुण्य-बन्ध होता है; सश्चित कर्मका नाश नहीं । भविष्य में ऐसा दुःख फिर न भोगना पड़े, इसके लिये 1 पूजादिका उपयोग किसी तरह कहा जाय तो ठीक है, परन्तु उसका प्रभाव वर्तमानमें फल देनेवाले कर्मपर नहीं पड़ता । उसके लिये तो उचित तपकी आवश्यकता है । दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार रोग और चिकित्साका सम्बन्ध है उसी प्रकार दुःख और पुण्यका सम्बन्ध है; इसलिये जिस प्रकार हरएक रोगके लिये हरएक चिकित्सा काम नहीं आती उसी प्रकार हर एक दुःखके लिये हर - एक २९०
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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