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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग २८१ है और कौन-सी नीच, इसकी जाँच इस बातपर होने लगी कि कौन किसके हाथका भोजन कर सकता है । हरएक जाति इस बातकी कोशिश करने लगी कि हमारे साथ कोई दूसरी जातिका आदमी भोजन न कर ले । इसका एक विचित्र नमूना देखिये उच्चवर्णी लोगोंके यहाँ जब भोज होता है तब पत्तलोंमें जो उच्छिष्ट बचता है उसे भंगी ले जाते हैं और खाते हैं । परन्तु उन उच्छिष्टभोजी भंगियोंने, जब कि एक बार वे पंक्तिभोज कर रहे थे, एक उच्चवर्णी हिन्दूको अपनी पंक्तिके भीतर किसी अन्य कार्यसे नहीं आने दिया ! जिसकी पत्तलका उच्छिष्ट ग्वाते हैं, भोजन करते समय, उसका स्पर्श नहीं सह सकते ! दूसरी जातियोंको नीच समझनेकी नीतिक ये बेहूदे फल हैं । जब उच्चवर्णियोंने दूसरोंको नीच समझ कर उनके माथ सहभोजन करनेमें अपमान समझा तब नीच कहलाने वालोंकी तरफसे उसकी प्रतिक्रिया हुई । उनने भी उच्चवर्णियोंका अपमान करनेके लिये उनके साथ न खानेके नियम बनाये । उच्छिष्ट भोजनको उनने एक व्यापार समझा और उच्चवर्णियोंके साथ सहभोजके निषेधको धर्म । इस प्रकार भंगीसे लेकर ब्राह्मणतक सभी जातियोंमें भोजनके नामपर एक दूसरेका अपमान करनेकी एक प्रतियोगिता (होड़) होने लगी। भोजन-शुद्धिका सिद्धान्त तो नष्ट हो गया और उसका स्थान जातिमदने ले लिया । सभी एक-दूसरेको नीचा समझने लगे। (ग) इस उच्च-नीचताके अहंकाररूपी पापराजका शासन यहाँ तक फैला कि दूसरी जाति के हाथका पानी पीना तक अधर्म माना जाने लगा । एक गँदले नालेका लोग पानी पी लेंगे परन्तु दूसरी
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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