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________________ दर्शनाचारके आठ अङ्ग २७५ शीलता और दुःग्वोंके सामने दृढ़ताके साथ खड़े रहनेकी भावना । 'वैषयिक सुग्व देवाधीन है ' इसका अर्थ है कि वह हमारी इच्छानुसार नहीं मिलता है । कभी मिलता है और कभी नहीं मिलता है । दूसरे ( सान्त ) विशेषणसे भी यही बात सिद्ध है और तीसरे विशेषणसे सुग्वकी अपूर्णता मालूम होती है। परन्तु अगर हम यह विचार कर लें-कि हमें तो सिर्फ कर्तव्य करना चाहिये, उसके फलकी पर्वाह न करना चाहिये; अथवा दुःखके माथ वीरतापूर्वक लड़नेकी हम दृढ़ भावना कर लें---तो सुग्व-दृग्वमें ममता रख सकें । वैषयिक सुग्वका चौथा विशेषण ‘पाप-बीज ' है और यही सबसे बुरा है । साधारण प्राणी अपने सुखके लिये दूसरेके न्यायोचित सुखकी पर्वाह नहीं करते; यही हमारे सुग्वकी पापवीजता है। समटिगत सुखमें निज सुखकी भावनाका अर्थ यही है कि दूसरोंके न्यायोचित अधिकार नष्ट न किये जायें । इस प्रकारके संयमसे वैषयिक सुखकी पापबीजता दूर की जा सकती है। ___ जो इन्द्रियजन्य सुख हमें मिले वह हम ग्रहण करें, उनके लिये न्यायोचित प्रयत्न करें और फिर भी वे न मिले तो दुःखको भी प्रसन्नतासे सहें । इन्द्रियसुखको हम इतना महत्त्व न दें कि उसके लिये अन्याय या अत्याचार करनेको तैयार हो जायँ । बस, यही निःकांक्षता है । निर्विचिकित्सता—शरीरके दोषोंपर दृष्टि न रखकर सद्गुणोंसे प्रेम करना निर्विचिकित्सता है । यह सम्यग्दृष्टिकी संद्गुणोपासकताका परिणाम है । यह नियम नहीं है कि जो मनुष्य सद्गुणी हो वह सुंदर भी हो और नीरोग भी हो । उत्तमता-पूज्यता आत्मामें है, न कि शरीरमें; इसलिये प्रेमके लिये आत्माका विचार करना चाहिये ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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