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________________ सम्यग्दर्शनके चिह्न होगी ? ' आदि विचार भी अत्राणभयके फल हैं । सम्यग्दृष्टि इन सब कायरताओंसे परे रहता है । वह समाजकी सेवा करता है, परन्तु समाजका गुलाम नहीं होता । वह समाजका विनय करता है परन्तु समाजको खुश रखने के लिये कुरूढ़ियोंका समर्थन नहीं करता । ' नौकरी छूटने पर क्या होगा ? बहिष्कार होने पर क्या होगा ? मैं अकेला रह जाऊँगा तो क्या होगा ? ' इत्यादि विभीषिकाओंको पददलित करके वह निर्भयताके साथ कर्तव्य - मार्ग में आगे बढ़ता है । सत्यके कारणअगर सारा जगत् उसके विरुद्ध रहता है तो वह मिटनेको तैयार २६९ पंचाध्यायी में जहाँ अन्य भयोंका व्यावहारिक निरूपण किया गया है वहाँ इन दोनोंका व्यावहारिक विवेचन नहीं है जिससे यह विषय स्पष्ट हो जाय । बल्कि समयसारका आध्यात्मिक विवेचन ही वहाँ विकृत हो गया है । पञ्चाध्यायीका विवेचन यह है : अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्ष चित्तक्षणादिवत् । नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मनः ॥ २-५३४ ॥ दृङ्मोहस्योदयाद्बुद्धिर्यस्यैकान्तादिवादिनी । तस्यैवागुप्तिभीतिः स्यान्नूनं नान्यस्य जातुचित् ॥ २-५३९॥ असजन्मसतो नाशं मन्यमानस्य देहिनः । कोऽवकाशस्ततो मुक्तिमिच्छतो गुप्तिसाध्वसात् ॥ २-५४० ॥ पञ्चाध्यायीके इस विवेचन में यह जानना मुश्किल है कि अत्राणभय और अगुप्तिभयमें क्या अन्तर है ? दोनों-हीके लक्षण में वस्तुकी नित्यता साबित करके निर्भयता बतलाई है । समयसारका विवेचन आध्यात्मिक होनेपर भी कुछ व्यावहारिक संकेत अवश्य करता है, जिससे दोनोंका भेद कुछ मालूम होता है । फिर भी उसमें भी एक प्रश्न रह जाता है कि चोरादिका भय, जो कि धनसम्पत्तिके अपहरणका भय है, स्पष्ट ऐहिक भय है फिर उसे 'अगुप्तिभय' शब्दसे अलग कहनेकी क्या ज़रूरत है । बनारसीदासजीने ऐहिक भयका निरूपण यों किया है—
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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