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________________ सम्यग्दर्शनका स्वरूप ર दी गई मिथ्यादृष्टि न हो जायगा; अथवा उस संशोधन में कहीं अतथ्य प्रवेश कर गया हो तो भी कोई उसपर विश्वास रखनेसे मिध्यादृष्टि न हो जायगा; अथवा वहाँ कोई वैज्ञानिक चर्चा अनिश्चित छोड़ हो तो उससे भी कोई सांशयिक मिध्यादृष्टि न हो जायगा ये सब वैज्ञानिक चर्चाएँ हैं; इनपर कोई कैसा ही विश्वास रक्खे किन्तु जब तक वह विश्वास समभाव या सुखमार्गका बाधक नहीं है तबतक उससे सम्यग्दर्शनका नाश नहीं हो सकता । । प्रश्न – यदि ऐसा है . तो आपने सर्वज्ञताकी परिभाषामें घोर परिवर्तन, देवागम आदिकी अनुपयोगिता तथा निषेध, मुक्तिकी अनिश्चितता, जैनधर्मकी प्राचीनता, भव्याभव्यका स्वरूप, संसार-शून्यता आदिपर विवेचन क्यों किया ? क्योंकि कोई इन बातोंमें आपके मतके विरुद्ध भी रहे किन्तु समभावी हो तो आप उसे सम्यक्त्वी मानेंगे; फिर प्रचलित मान्यतासे उन्हें क्यों हटाना चाहिये ? क्यों उन्ह व्यर्थ क्षुब्ध करना चाहिये ? . क्योंकि क्यों न उत्तर - सुखमार्गमें अगर कोई बाधा न आती हो तो अन्य वस्तुओंका ज्ञान मिथ्या होनेपर भी सम्यक्त्वमें बाधा नहीं आतीइसका यह अर्थ नहीं है कि वह असत्यका पोषण करे । सम्यग्दृष्टि जीव सत्यका खोजी होता है, इसलिये उपर्युक्त विषयोंमें भी वह सत्य ही चाहता है । समयाभावादि कारणोंसे वह किसी सत्यपर उपेक्षा भले ही कर जाय परन्तु वह क्षुब्ध नहीं हो सकता । यों भी वह विपरीत विचारोंपर क्षुब्ध नहीं होता, फिर जो विचार युक्तियुक्त हैं उनपर तो वह श्रद्धा ही दिखलायगा। इतनेपर भी अगर वह क्षुब्ध होता है तो कहना चाहिये कि उसमें समभाव नहीं है इसलिये वह सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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