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________________ सम्यग्दर्शनका स्वरूप २२९ via रक्खू ? आज मैं हिन्दू हूँ, मरकर मुसलमान होना पड़ा तो आज मुसलमानोंका द्वेष क्यों करूँ ? अथवा आज मैं मुसलमान हूँ, मरकर हिन्दू होना पड़ा तो हिन्दुओंसे झगड़ा मोल क्यों ? आज मैं पुरुष हूँ, कल ( मृत्युके बाद ) अगर स्त्री होना पड़ा तो स्त्रियोंकी स्वतन्त्रता क्यों छीन ? अथवा आज मैं विधुर हूँ, मरकर विधवा होना पड़ा तो विधुरोंके अधिकार विधवाओंको भी क्यों न प्राप्त करने दूँ ? आज मैं मनुष्य हूँ, कल अगर पशु होना पड़ा तो उन्हें वृथा क्यों सताऊँ ? आज मैं ब्राह्मण हूँ कल शूद्र होना पड़ा तो शूद्रोंको पददलित क्यों करूँ ? आज राजा हूँ, कल प्रजा होना पड़ा तो अत्याचार क्यों करूँ ? आज जमीनदार हूँ, कल कृषक होना पड़ा तो उन्हें क्यों सताऊँ ? __इस तरहकी भावनाओंसे वर्गीय तथा वैयक्तिक अत्याचारोंका नाश होता है । वह सोचता है कि दुनियाँमें दूसरे वर्गोके साथ मैं जितनी भलाई करूँगा वह सब मेरे काम आयगी। इसलिये दूसरेके साथ भलाई करना दूसरेके ऊपर अहसान नहीं है किन्तु भविष्यमें अपनी रक्षाका उपाय है । इस तरह जगत्की भलाई और अपनी भलाई एक हो जाती है । यह दृढ़ निश्चय आत्माको नित्य माननेका फल है । इसलिये सम्यग्दृष्टि आत्माको नित्य मानता है। प्रश्न- सम्यग्दृष्टि जीव अप्रामाणिक बातोंपर विश्वास नहीं करता इसलिये जब तक आत्मा एक नित्यवस्तु सिद्ध न हो जाय तब तक वह आत्मापर विश्वास कैसे करेगा ? परलोकका कोई निश्चित रूप भी तो सिद्ध नहीं है, जिससे परलोककी आशा की जाय ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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