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________________ सम्यग्दर्शनका स्वरूप २२७ काममें आती है । परन्तु न्यायभक्ति जगत्का कल्याण ही करती है । साधारण लोग जिस कामको देशाभिमान, जात्यभिमान आदिके द्वारा करते हैं वही काम सम्यग्दृष्टि जीव न्यायभक्तिके द्वारा करता है। पहिली वस्तु (देशाभिमान आदि) कभी कभी उपादेय है जब कि दूसरी ( न्याय भक्ति) सदा उपादेय है। - इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा जगत्में सुखोपार्जन अधिक करता है। साथ ही सुखी बननेकी कलाके कारण दुःखसे बचा रहता है। प्रथम अध्यायमें ये दोनों ही कारण सुखी बननेके बतलाये हैं जिनको सम्यग्दृष्टि ही अच्छी तरहसे प्राप्त कर सकता है । इसके लिये स्व-पर-विवेक बहुत सहायक होता है क्योंकि जीवनको नाटक समझना, शरीरको जुदा समझना आदि भावनाएँ उसे पूर्ण कर्तव्यतत्पर बनाती हैं । इस भावनाके पहिले उसे शारीरिक स्वार्थ कर्तव्यमार्गसे विमुख कर दिया कर देते थे। अब उसे कोई बाहरा वस्तु कर्तव्यमार्गसे विमुख नहीं कर सकती है इसलिये स्वपरविवेक या भेदविज्ञान सम्यग्दर्शनका चिह्न कहा जाता है। इस विवेचनसे सम्यग्दर्शनके स्वरूपका कुछ कुछ भान होने लगेगा । फिर भी सम्यग्दर्शन अनिर्वचनीय है । इसलिये इस विषयमें कुछ और कहा जाता है जिससे कुछ और भी स्पष्टता हो । जीवनको नाटक समझनेसे जिस प्रकार कर्तव्यतत्परता आती है अथवा मनुष्य सुखी रहनेकी कलामें निष्णात होता है उसी तरह आत्माको नित्य और इस जीवनको अनित्य या अपूर्ण समझनेसे सुखी रहनेकी कला आती है। पहले अध्यायमें यह कहा जा चुका है कि जगत्कल्याणमें आत्मकल्याण है। इसलिये जगत्-कल्याणके साथ
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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