SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ जैनधर्म-मीमांसा -warraiminararma.mmmmxmmmmmmmmmms पहिली प्रकारकी बातोंका निश्चय कुछ अधिक है। क्योंकि अगः उससे कोई कहे कि सीताजी अग्निकुंडमें कूद पड़ी फिर भी न जल तो वह ऐसे अवसरपर अग्निकी दाहकताके विश्वासको शिथिल क देगा और सीताजीके न जलनेकी बातको मान लेगा; परन्तु अग कोई कहे कि वह आदमी इतना चालाक है कि उसके पापको ईश्वन भी नहीं जान पाता तो इस बातमें वह ईश्वरका अपमान समझेग और भक्तिके आवेगमें लड़नेको भी तैयार हो जायगा। अगर उसे कोई प्रबल प्रमाणोंसे सिद्ध कर दे कि ऐसा ईश्वर हो नहीं सकता ते भी वह उन प्रमाणोंपर विश्वास न करेगा और ईश्वरपर दृढ़ विश्वास रक्खेगा । इससे मालूम होता है कि अग्निकी उष्णताकी अपेक्षा उसे ईश्वरपर अधिक विश्वास है । परन्तु क्या उसका यह विश्वाम् सच्च है ! वह इस डरसे कि मैं मर न जाऊँ विष नहीं खाता, इस डरसे कि मैं जल न जाऊँ अग्निका स्पर्श नहीं करता । इस तरह इन बातोंका तो वह पूरा खयाल रखता है; परन्तु ' मुझे हिंसा न करना चाहिये-ईश्वर देखता है-झूठ न बोलना चाहिये, चोरी न करना चाहिये, व्यभिचार न करना चाहिये, क्योंकि ईश्वर देखता है; वह दंड देगा,' इस बातका वह शतांश भी ध्यान नहीं रखता ! यदि उसे ईश्वरका पक्का विश्वास होता तो जितना वह अग्नि और विषसे बचता है उससे भी अधिक पापसे बचता । इससे मालूम होता है कि ज्ञान हो जाना एक बात है और श्रद्धा हो जाना दूसरी बात । श्रद्धाके विना ज्ञानका कुछ मूल्य नहीं है। इसलिये हम श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कह सकते हैं। प्रश्न-श्रद्धा तो एक तरहका अन्ध-विश्वास है, जिसमें संकुचि
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy