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________________ २१४ जैनधर्म-मीमांसा mmmmmmmmmmmmmmmmm आदमी बहुत होशियार है उसने बड़े बड़े लोगोंको धोखा दिया है और इस तरह वह लाखों रुपये पैदा करके चैनसे जीवन बिता रहा है । ' यह ज्ञान सत्य होकरके भी असत्यज्ञान है क्योंकि इसका निष्कर्ष असत्य है। असत्यासत्य-जो वस्तुस्थितिकी दृष्टिसे असत्य हो और निष्कर्षकी दृष्टिसे भी असत्य हो उसे असत्यासत्य कहते हैं । जैसे—'अगर तुम अमुक देवीको पशुबलि न चढ़ाओगे तो वह तुम्हारे वंशका नाश कर देगी।' इसमें देवीका अस्तित्व और उसके द्वारा वंशनाश, ये दोनों बातें वस्तुस्थितिकी दृष्टिसे असत्य हैं और इसके द्वारा पशुबलिको जो उत्तेजना दी गई है वह निष्कर्षकी दृष्टिसे असत्य है । इस तरह यह दोनों तरहसे असत्य है । ___ इन चार भेदोंमेंसे प्रथम भेद लौकिक और धार्मिक दोनों दृष्टियोंसे सत्य है, और चतुर्थ भेद असत्य है । परन्तु दूसरे-तीसरे भेदोंमें लौकिक और धार्मिक दृष्टि से अन्तर है । धार्मिक दृष्टिसे दूसरा भेद सत्य है और तीसरा असत्य है जब कि लौकिक दृष्टिसे दूसरा असत्य है और तीसरा सत्य है। जिस दृष्टिके सद्भावसे लौकिक मिथ्या ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है और जिसके अभावसे लौकिक सम्यग्ज्ञान भी मिथ्याज्ञान हो जाता है वही दृष्टि सम्यग्दर्शन है। ज्ञानका काम वस्तुका ठीक ठीक जान लेना है किन्तु ज्ञानके द्वारा जानी हुई वस्तुमें जिस दृष्टिसे कर्तव्याकर्तव्य या हेयोपादेयका विवेक होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस तरह ज्ञान पहिले होता है, विवेक पीछे होता है । इससे इन दोनोंका (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानका ) अन्तर मालूम हो सकता है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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