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________________ मतभेद और उपसम्प्रदाय दो बातों में मतभेद प्रगट किया । पहिला तो यह कि आत्मा कर्मके साथ बँचता नहीं है किन्तु स्पर्श मात्र करता है। संयोगमें दोनों चीजें जुदीं जुदीं रहती हैं जब कि बंधमें एक हो जाती हैं। संयोग तो मूर्तिक- अमूर्तिकका हो सकता है परन्तु बंधके लिये स्निग्धता आदिकी आवश्यकता होती है। इसलिये यह संदेह होना स्वाभाविक. है कि अमूर्तिक जीवके साथ मूर्तिक कर्मपुद्गलोंका बंध कैसे हो सकता है ? यद्यपि बंधकी बात समझ में नहीं आती परन्तु संयोग मान लेनेपर भी समस्या हल नहीं होती । क्योंकि संयोग मान नेपर कर्म आत्माका अनुसरण न करेगा । इसलिये परलोक आदिकी व्यवस्था ही बिगड़ जायगी । अथवा संयोगके सामने भी बंध सरीखा प्रश्न खड़ा हो जायगा । सच बात तो यह है कि आत्माके स्वरूपकी समस्याही बड़ी जटिल है इसलिये संयोगका और बंधका जटिल प्रश्न सामने खड़ा है । हाँ, यह निश्चित है कि आत्मा और कर्मको जुदा जुदा द्रव्य मान लेनेपर जब उनका सम्बन्ध मानना है तब यह कार्य संयोगसे पूरा नहीं हो सकता । इस जगह बंध मानना ही उचित है । गोष्ठमालिकी दूसरी आपत्ति यह थी कि व्रत, नियम आदि जीवनभर के लिये नहीं लेना चाहिये किन्तु सदाके लिये लेना चाहिये | क्योंकि जीवनभर के लिये व्रत लेनेका अर्थ यह है कि जीवन के बाद हम उनका पालन नहीं करना चाहते। मरनेके बाद विषयभोग भोगनेकी हमें लालसा है। २०३ परन्तु जैनियोंका कहना यह है कि मरनेके बाद व्रतका पालन करना न करना हमारे वशकी बात नहीं है । देवगति आदिमें चले 1
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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