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________________ दिगम्बर श्वेताम्बर १८९ यह श्रुत अधूरा है तथा भाषा और भावकी दृष्टिसे थोड़ा बहुत विकृत भी है और उसमें पछिकी बातें भी मिल गई हैं तथा बौद्ध साहित्यका भी उसपर प्रभाव पड़ा है । फिर भी वह बहुत कामकी चीज़ है । अगर यह संग्रह न होता तो आज तक पंद्रह सौ वर्षमें जो विकार पैदा होता वह भी शास्त्र के नामपर प्रचलित हो जाता । यह आश्चर्य है कि दिगम्बर सम्प्रदायने इस प्रकारका संग्रह नहीं किया, बल्कि वे नवीन रचना ही करते आये हैं। इसके ठीक ठीक कारण समझमें नहीं आते परन्तु निम्नलिखित कारण यहाँ कहे जा सकते हैं— १ - दिगम्बर सम्प्रदाय चरित्रके नियमोंका कड़ाई से पालन करना चाहता था, जब कि प्राचीन श्रुतमें कठिन और शिथिल सभी तरह के नियमों का उल्लेख था । इसलिये दिगम्बरोंने प्राचीन श्रुतकी रक्षा करने की अपेक्षा नये श्रुतकी रचना करना ही उचित समझा । २ - प्राचीन श्रुत विकृत हो जानेके कारण कुछ असम्बद्ध था तथा प्राचीन होनेके कारण कुछ असुंदर भी था इसलिये उनने उसपर उपेक्षा की । भग्नावशेषकी मरम्मत करनेकी अपेक्षा उसी सामग्रीसे इन नई इमारत खड़ी करना अच्छा समझा । इनमेंसे पहिला कारण ही अधिक ज़ोरदार मालूम होता है । अन्यथा यह बात नहीं हो सकती कि दिगम्बर लोग प्राचीन श्रुतका थोड़ा-बहुत भी संग्रह नहीं कर सकते । यदि दिगम्बरों के मतानुसार श्वेताम्बरोंने प्राचीन श्रुतमें बहुत-सी मिलावट कर दी थी तो दिगम्बरोंको चाहिये था कि उस मिलावटको दूर करके जो कुछ श्रुत
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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