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________________ दिगम्बर श्वेताम्बर वाधा आती है । नग्न रहकर हम जनताका समागम भी हमें पर्याप्त अवस्थामें तो हमें बिलकुल वनवासी सेवा बहुत कम कर सकेंगे । १८७ राजसभाओं में कैसे जा सकते हैं ? रूप में नहीं मिल सकता । उस रहना पड़ेगा इसलिये हम जन यह भी सम्भव है कि बौद्ध साधुओंके धर्मप्रचारका भी असर पड़ा हो, और जैन मुनियोंको यह आवश्यकता मालूम हुई हो कि जंगलमें पड़े रहनेसे शासनकी उन्नति और लोककल्याण न होगा । इसलिये मध्यम-वेषको धारण करके समाज सेवामें भाग लेना चाहिये । कुछ भी हो परन्तु यह निश्चित है कि ये दोनों सम्प्रदाय दृष्टिबिन्दुके अन्तरके ही परिणाम थे— नरम दलकी आचार भ्रष्टताके परिणाम नहीं थे । यदि ऐसा होता तो स्थूलभद्र सरीखे कामजयी + चरित्रवान् विद्वान् नेता इस दलको न मिलते । - संघके इस प्रकार अनेक भागोंमें बट जानेसे तथा लापर्वाही आदि अनेक कारणोंसे श्रुत लुप्त हो चला था इसलिए उत्तर - प्रान्तवालोंने पटनामें संघकी बैठक की, और जितना बन सका प्राचीन श्रुतका संग्रह किया । इससे उनको दो लाभ थे। पहिला तो यही कि श्रुतकी (शास्त्रकी) रक्षा हो, दूसरा यह कि दक्षिण प्रान्तवालोंको यह बतलाया जाय कि हम लोग शास्त्राज्ञाके बाहर नहीं हैं । जब दक्षिणवाले उत्तरको लौटे तो उनने इनका अधिक विरोध किया । एक तो ये पहिलेसे ही विरोध करते थे, दूसरे दक्षिण- श्रान्तमें + भूतो न कोऽपि न भविष्यति भूतलेऽस्मिन् श्रीस्थूलिभद्रसदृशो मुनिपुङ्गवेषु । येनैव रागभुवनेऽपि जितो हि कामः पण्याङ्गनावरगृहे वसता निकामम् || खरतरगच्छसूरिपरम्परा प्रशस्ति ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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