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________________ देवकृत अतिशय १६९ • ३–समवशरणभूमौ भगवद्भाषया व्याप्त, परतो मगधदेवैस्तद्भाषाया अध मागधभाषया संस्कृतभाषया च प्रवर्त्यते । अर्थात् समयशरणके बाहर मागधदेव ( मगधके दुभाषिया ) आधी मागधी और आधी संस्कृतमें उसका विस्तार करते हैं । (दशभक्तिटीका) ____४-अर्द्ध भगवद्भाषया मगधदेशभाषात्मकं अर्द्ध च सर्वभाषास्मकं । अर्थात् आधी मागधी और आधी सर्व भाषा । ( दर्शनप्रामृत टीका ) ५-सयोगकेवलिदिव्यध्वने कथं सत्यानुभयवाग्योगत्वमिति चेन्न, तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृश्रोत्रप्रदेशप्राप्तिसमयपर्यंतमनुभयभाषात्वसिद्धेः। तदनंतरं च श्रोतृजनाभिप्रेतार्थेषु संशयादिनिराकरणेन सम्यज्ञानजनकत्वेन सत्यवाग्योगत्वसिद्धेश्च । अर्थात् अरहंतकी दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक होनेसे अनुभय ह परन्तु श्रोतालोगोंके कानमें पहुँच कर सम्यग्ज्ञान पैदा करती है इसलिये सत्यरूप है। (गोम्मटसार जीवकांड टीका २२७) इससे मालूम होता है कि अरहंत भगवानकी वाणी मूलमें अनक्षरात्मक है अर्थात् किसी भाषारूप नहीं है, पछि सर्व भाषामक हो जाती है। ६-मगध और शूरसेनके बीचकी भाषा अर्धमागधी* कहलाती है। * ये सब पाठ-भेद भी इस बातके सूचक हैं कि ज्यों ज्यों समय जाता है त्यो त्यों शास्त्रोंकी बातें कुछकी कुछ होती जाती हैं। वर्तमानके शास्त्रोंको शुद्ध जिनवाणी समझना भूल है । वे सिर्फ शुद्ध जैनधर्मके खोजकी सामग्री हैं। ...
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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