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________________ ac जैनधर्म-मीमांसा दृष्टि से सत्य है। मनुष्य-प्रकृतिका विचार करके हरएक धर्ममें वैज्ञानिक असत्यको स्थान मिला है। परन्तु वह असत्य भी धर्मके लिए ही लाया गया है, अधर्मके लिए नहीं । इस बातको स्पष्ट करनेके लिए एक उदाहरणमाला उपस्थित करनेकी आवश्यकता होगी। पहिले ईश्वरकर्तृत्वके विषयको लीजिए । एक सम्प्रदाय कहता है कि जगत्कर्ता ईश्वर है; दूसरा कहता है कि जगत्कर्ता ईश्वर नहीं है । निःसन्देह इन दोनों से कोई एक असत्य है। परन्तु इन दोनों वादोंका लक्ष्य क्या है ? ईश्वर-कर्तृत्ववादी कहता है कि अगर तुम पाप करोगे तो ईश्वर तुम्हें दण्ड देगा, नरकमें भेजेगा; अगर तुम पुण्य करोगे तो वह खुश होगा, तुम्हें सुख देगा, स्वर्गमें भेजेगा। ईश्वर-कर्तृत्वविरोधी जैन कहेगा कि अगर तुम पाप करोगे तो अशुभ कर्मोका बन्ध होगा; खाये हुए अपथ्य भोजनके समान उसका तुम्हें दुःखमय फल मिलेगा, तुम्हें बुरी गतिमें जाना पड़ेगा। अगर तुम पुण्य करोगे तो तुम्हें शुभ कर्मोका बन्ध होगा, खाये हुए पथ्य भोजनके समान उससे तुम्हारा हित होगा, आदि । एक धर्म लोगोंको ईश्वर-कर्तृत्ववादी बनाकर जो काम कराना चाहता है, दूसरा धर्म लोगोंको ईश्वर-कर्तृत्वका विरोधी बनाकर वही काम कराना चाहता है । यहाँ धर्ममें क्या भिन्नता है ? भिन्नता उसके साधनोंमें हैं । परन्तु भिन्नता होनेसे विरोध होना चाहिये, यह नहीं कहा जा सकता । विरोध वहाँ होता है जहाँ दोनोंका उद्देश्य एक दूसरेका विघातक हो; परन्तु यहाँ दोनोंका उद्देश्य एक ही है । इसलिये हम इन्हें विरोधी धर्म नहीं कह सकते । उनमेंसे अगर हम ईश्वर-कर्तृत्ववादको वैज्ञानिक दृष्टिसे
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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