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________________ १६२ जैनधर्म-मीमांसा चार मुख दीखनेका अतिशय भी भक्तिकल्प्य है । सम्भव है म० महावीरको जैन ब्रह्माका रूप देनेके लिये यह कल्पना की गई हो । इस भक्तिकल्प्य अतिशयके लिये पीछेसे वैज्ञानिकता भी खूब बघारी गई है । कल्पना या की जाती है कि केवलज्ञानके बाद तीर्थंकरका शरीर स्फटिकसे भी अधिक निर्मल हो जाता है । इसलिये पारदर्शक होनेके कारण पीछेसे अगला भाग भी दिखलाई देता है । यद्यपि यह पारदर्शकता भी कल्पित ही है फिर भी अगर इसे सत्य मान लिया जाय तो भी यह बात ठीक नहीं बैठती क्योंकि भगवानकी पीठमें पारदर्शकता हो और अगले भागमें न हो यह नहीं कहा जा सकता, इसलिये नेत्रोंकी किरणें ( वर्तमानके वैज्ञानिकोंके अनुसार पदार्थकी किरणें ) पृष्ठभागके समान अग्रभागको भी पार कर जायँगीं । फल यह होगा कि भगवान तो न दिखेंगे किन्तु उनके आगेकी कोई दूसरी चीज़ अशोकवृक्ष आदि दीखने लगेगा, जिस प्रकार स्फटिककी मूर्तिके पीछे जवाकुसुम वगैरह लगा देनेसे स्फटिक के बदले जवाकुसुम कीललाई दिखलाई देने लगती है । इस अतिशयके लिये वैज्ञानिकताका सहारा लेना भूल है । " श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस ढंगका एक देवकृत अतिशय माना जाता है कि जिससे लोगोंको मालूम हो कि तीर्थंकर चार मुखसे उपदेश देते हैं जिसका खुलासा यों किया जाता है कि पूर्व दिशामें तीर्थंकर बैठें और बाकी तीन दिशाओंमें तीन प्रतिबिम्ब व्यन्तरदेव स्थापें । इस अतिशयपर विचार करके निम्नलिखित बातोंमेंसे कोई एक कही जा सकती है:
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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