SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मक्षयजातिशय १५५ worrrr rawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww कुछ भी नहीं है । शरीरके पवित्र होनेसे या अपवित्र होनेसे किसी आत्माका महत्त्व या अमहत्त्व नहीं है । सुन्दरी स्त्रियाँ भी दुराचारिणी देखी जाती हैं, अच्छे शरीरवाले मनुष्य भी पापी देखे जाते हैं और असुन्दर तथा रुग्ण मनुष्य भी सदाचारी महात्मा होते हैं। जैनधर्मने तो हुण्डक संस्थानी तथा कुबड़े मनुष्योंको भी केवली माना है। (तेरहवें गुणस्थानमें न्यग्नो धपरिमंडल आदि अशुभ संस्थानोंका तथा अन्य अनेक अशुभ प्रकृतियोंका उदय रहता है) जब कुरूप रुग्ण आदि मनुष्य केवली तक हो जाते हैं तब किसीका महत्त्व बतलानेके लिये उसके शरीरको सर्वगुणसम्पन्न बतलाना अनावश्यक ही है। शरीरकी पवित्रता तो एकेन्द्रिय वृक्षोंमें भी पाई जाती है। जिस कमलकी भगवानको उपमा दी जाती है वह बेचारा स्वयं एकेन्द्रिय है । इसलिये शारीरिक अतिशयोंका कुछ भी महत्त्व नहीं है। ऐसी अनावश्यक वस्तुके लिये म० · महावीरके व्यक्तित्वको अस्वाभाविक और असंभव कोटिमें डालनेकी ज़रूरत नहीं है। म० महावीरके शरीरमें कुछ न कुछ असाधारणता अवश्य थी इसीसे वे इतने उपसर्गोको सह सके, परन्तु इसके लिये इतनी असम्भव कल्पनाओंकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि शारीरिक महत्त्वके कम होनेसे आत्मिक महत्त्वको कम मानना जैनधर्मके विरुद्ध है। अगर म० महावीरमें उपर्युक्त सहजातिशय न हों तो उनके तीर्थङ्करत्वमें जरा भी बाधा नहीं आती। जैनधर्म शरीरका धर्म नहीं, आत्माका धर्म है। कर्मक्षयजातिशय । जो अतिशय घातिक कर्मोके क्षयसे मिलते हैं वे कर्मक्षयजातिशय कहलाते हैं । परन्तु इनमेंसे बहुतसे अतिशय सामान्यकेवलियोंके नहीं
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy