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________________ जैनधर्म मीमांसा अच्छी और बुरी वृत्तियाँ हैं तब तक उसे धर्मकी आवश्यकता रहेगी । इसलिये हमारा काम यही होना चाहिये कि धर्मका संशोधन करें । इसके लिये हमें धर्मका मूलस्वरूप ढूँढ़कर, जगत् में धर्म क्यों पैदा होते हैं इस बात को समझकर, सब धर्मोका समन्वय करते हुए धर्मकी मीमांसा करनी चाहिये । प्रत्येक धर्म इसी बात की दुहाई देता हैं कि मैं सबको दुःखोंसे छुड़ाऊँगा । इससे मालूम होता है कि दुःखोंको दूर करनेका जो मार्ग है उसे ही धर्म कहते हैं । यह तत्त्व जिसमें जितना अधिक पाया जायगा वह धर्म उतना ही अच्छा होगा । परन्तु इस तत्त्वका कोई ऐसा एक रूप नहीं हैं जो सब समय और सब जगहके सब व्यक्तियोंके लिये कल्याणकारी कहा जा सके । इसलिये कोई भी धर्म सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टिसे उपयुक्त नहीं हो सकता । अगर उसको उपयुक्त बनाये रखना है, तो समय समयपर उसकी मीमांसा करते हुए उसमें ऐसा परिवर्तन करते रहना चाहिये जिससे धर्म - संस्थाका मूल उद्देश्य सिद्ध हो । अगर हम प्रत्येक धर्मकी, उदारता और विनयके साथ मीमांसा करें और उसमें समयानुसार परिवर्तन कर लें, तो हमें आश्चर्यपूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा कि दुनियाके सभी धर्म एक दूसरे से बिलकुल मिले हुए हैं । इतना ही नहीं बल्कि जिन्हें हम भिन्न भिन्न धर्म समझते हैं, वे एक ही धर्मके जुदे जुदे पहलू हैं । धर्मके भीतर जो 1 अविश्वसनीय तत्त्व आ गये हैं वे भोले लोगोंको समझानेके लिये रक्खे गये हैं, धर्मके मर्मका उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । उन बातोंमें परिवर्तन करने से धर्मकी कुछ भी क्षति नहीं होगी ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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