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________________ १३० जैनधर्म-मीमांसा 1 यद्यपि छद्मस्थ अवस्था में म० महावीरने धर्म प्रचारका काम नहीं किया था, फिर भी आवश्यकता होनेपर वे ऐसी बातोंका जिकर करते थे जिनके निर्णय करनेका काम बाकी नहीं रहा था। एक बार चम्पा नगरीमें वे स्वादिदत्त नामक ब्राह्मणकी यज्ञशालामें ठहरे । वहाँ दो आदमी ( शास्त्रोंके शब्दोंमें यक्ष ) उनकी वन्दनाको प्रति दिन आते थे । उन्हें देखकर उस ब्राह्मणको विचार हुआ कि क्या ये तपस्वी ज्ञानी भी हैं जो ये आदमी इनकी पूजा करने आते हैं । इसलिये एक दिन उसने म० महावीर के साथ आत्माके विषय में चर्चा की और पूछा कि आत्मा कैसा है, कहाँ है आदि । म० महावीरने सन्तोषजनक उत्तर दिया । I एक बार एक ग्राम के बाहर वे कायोत्सर्गसे ध्यानस्थ थे । वहाँ एक ग्वाला आया और बैलोंको छोड़कर कहीं चला गया। लौटकर आकर देखा तो वहाँ बैल नहीं थे। उसने महात्मासे पूछा परन्तु वे ध्यानस्थ थे, इस लिये कुछ न बोले । ग्वालाको गुस्सा आ गया । वह बोला - तू मेरी बातका जबाब क्यों नहीं देता ? क्या तुझे सुन नहीं पड़ता ? फिर थे बड़े बड़े छिद्र किसलिये हैं ? जब वे कुछ न बोले तो उसने कानोंके छिद्रोंमें पतली और पैनी लकड़ियाँ ठोक दीं । इतना ही नहीं, किन्तु कोई इन लकड़ियों को निकाल न दे इसलिये छिद्रोंसे बाहर निकला हुआ लकड़ियोंका भाग उसने काट डाला । इस विकट कष्टमें भी महात्मा घूमते रहे, और घूमते घूमते अपापा नगरीमें पहुँचे । वहाँ सिद्धार्थ नामक वैश्यके यहाँ भोजनार्थ पधारे। उस समय कानकी वेदनाके कारण उनका मुख कुछ फीका हो रहा था । उस वैश्यका एक खरक नामका वैद्य मित्र था । सौभाग्यवश वह उस समय
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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