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________________ ११८ जैनधर्म-मीमांसा nonnummerna पास आये । वहाँ एक ऐसी घटना हुई जो महात्माके जीवनमें थोड़ी-सी साधारणता ला देती हैं। दिगम्बर सम्प्रदायमें तो ऐसी घटनाओंका उल्लेख ही नहीं है; श्वेताम्बर सम्प्रदायमें है परन्तु वहाँ इसका ऐसा बचाव किया गया है कि इस घटनामें महावीरका हाथ जरा भी नहीं है । उनके शरीरमें सिद्धार्थ देव प्रविष्ट होकर ऐसे सब काम करता था। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि इस बचावमें कुछ भी दम नहीं है। असली बात तो यह है कि हम महावीरको जन्मसे ही भगवान् मान बैठे हैं। इसलिये उनके द्वारा जब कोई साधारण मनुष्योचित घटना होती है तब हम उसका लँगड़ा बचाव करने लगते हैं। अगर हम यह समझ लें कि वे जन्मसे मनुष्य ही थे, पूर्ण महात्मा तो वे ब्यालीस वर्षकी अवस्थामें हुए हैं तो इस बाँचमें अगर उनसे कोई ऐसी घटना हो जाय जो उनके व्यक्तित्यपर न फबती हो तो उसमें आश्चर्यकी बात नहीं है । आखिर उनकी वह साधक अवस्था ही तो थी, इसलिये हमें ऐसी घटनाओंको किसी व्यन्तर वगैरहके नाम मढ़नेकी आवश्यकता नहीं है। महावीर-चरितमें सिद्धार्थ व्यन्तर अनेक बार आया है जिससे वह बहुत विकृत हो गया है। सिद्धार्थके आवरणको अलग करके हम महावीर-चरितको ठीक रूपमें देख सकेंगे। .. म० महावीरकी यह घटना ज्योतिष विद्यासे सम्बन्ध रखती है। उस जमानेमें आत्म-ज्ञानके साथ ज्योतिष विद्या या अष्टांग निमित्तज्ञानका भी बड़ा महत्त्व था । निमित्त-ज्ञानकी विद्या उस समय बहुत तरक्की पर थी। लोगोंके चेहरे परसे उसके मनकी बातें बता देना अथवा लोगोंके मनके ऊपर प्रभाव डालकर उनसे सच्ची और छुपी
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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