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________________ जैनधर्म-मीमांसा " वत्स, इस झोपड़ेकी रक्षा क्यों न की ? तुम्हारे पिताने तो यावजीवन सब आश्रमोंकी रक्षा की है * । दुष्टोंको दंड देना तो तुम्हारा व्रत होना चाहिये । पक्षी भी अपने घोंसलेकी रक्षा करते हैं । तुम तो विवेकी हो, तुमने आश्रमकी रक्षा क्यों न की ? तुम्हारे पिताकी मित्रता के कारण मैं मुलाहिजा कर रहा हूँ । आगेसे तुम्हें अपने कर्त्तव्यमें आलस न करना चाहिये । म० महावीरने इन सब बातोंका कुछ भी उत्तर न दिया । उन्होंने सोचा कि अगर मैं यहाँ रहूँगा तो इन लोगोंको सदा क्लेश होगा, इसलिये मेरा यहाँ रहना उचित नहीं है । वर्षाऋतुके पन्द्रह दिन निकल गये थे, फिर भी उन्होंने दूसरी जगह चला जाना उचित समझा और उसी समय पाँच नियम बनाये "" ११४ ~. ( १ ) जहाँ रहनेसे क्लेश हो वहाँ न रहना । ( २ ) जहाँ रहना, वहाँ कायोत्सर्ग करके रहना । ( ३ ) जहाँ तक हो सके मौन धारण करना । ( ४ ) भोजन के लिये पात्रका उपयोग न करना, अर्थात् हाथमें आहार लेना । (५) गृहस्थका विनय नहीं करना । * सिद्धार्थ नरेश म० पार्श्वनाथके अनुयायी थे, फिर भी उदार थे । सिद्धार्थकी तापस कुलपति से मित्रता होना, महावीरका तापस कुलपतिको नमस्कार करना और सिद्धार्थ नरेशका तापसाश्रमों की रक्षा करना और पहले ही चौमासेमें महावीरका तापसाश्रममें रहनेके लिये आना, इस बातको सिद्ध करता है कि सिद्धार्थ नरेश तापस-भक्त भी होंगे । इस प्रकार प्राचीन युगके उदार राजाओंके समान वे सभी धर्मो को मानते होंगे और उनका विशेष सम्बन्ध इस कुलपतिसे होगा ।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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