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________________ ૨૦૮ जैनधर्म-मीमांसा mmmmmmm क्षित हो जाती है; परन्तु अगर किसीको इस प्रकार परीक्षा देनेका अवसर प्राप्त न हो तो उसका कैवल्य रुक नहीं सकता। इस प्रकार कैवल्य प्राप्त करनेवालोंको भले ही उपसर्गादि विजय प्राप्त करनेका अवसर न मिले परन्तु उनमें सब प्रकारके उपसर्गोको विजय करनेकी शक्ति अवश्य रहनी चाहिये । ___ तपस्याकी शक्ति न रहनेपर मनुष्य न तो पूर्ण वीतराग हो सकता है, न दुःखोंपर विजय प्राप्त कर सकता है। पहले कहा जा चुका है कि पूर्ण सुखी बननेके लिये हरएक प्रकारके दुःखोंके साथ लड़नेकी पूर्ण शक्ति होना चाहिये। अगर हम दो दिनकी भूखसे डरेंगे, किसी प्रकारके कष्टसे घबराएँगे तो हमारे पीछे भय लगा रहेगा। जहाँ भय है वहाँ न तो वीतरागता है, न सुख । यही कारण है कि हम म० महावीरके जीवनमें तपकी महत्ता पाते हैं । यह तप प्रशंसाके लिये नहीं था, दुखी होनेके लिए नहीं था, किन्तु दुःखको विजय करनेके लिये, सुखको पूर्ण और स्थिर बनानेके लिये था। इस प्रकार म० महावीरने पूर्ण वीतराग और पूर्णज्ञानी (केवलज्ञानी) बननेके लिये बारह वर्ष तक सफल तपस्या की । परन्तु वीतराग और सर्वज्ञ हो जानेसे ही कोई तीर्थङ्कर नहीं हो जाता । इतनेसे वह सिर्फ 'अर्हन्त' बनता है। म० महावीरके शिष्योंमें, ऐसे सात सौ 'अर्हन्त' थे, परन्तु वे तीर्थङ्कर नहीं थे । अर्हन्तोंमें जो धर्म-संस्थापक अर्हन्त होते हैं वे 'तीर्थङ्कर' कहलाते हैं । वे तत्त्वज्ञ ही नहीं होते-तत्त्वप्रदर्शक भी होते हैं । वे धर्मकी मूर्ति दुनियाके सामने रखते हैं। द्रव्य-क्षेत्र-कालभावके अनुसार वे धर्मके नियमोपनियम बनाते हैं, उनका लोगोंसे पालन कराते हैं, संघका संस्थापन और संचालन करते हैं । इन सब
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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