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________________ जैनधर्म-मीमांसा सत्य उपदेश देनेके लिये दो बातोंकी आवश्यकता है। एक तो वीतरागताकी, दूसरे सत्यज्ञानकी । कषाय और अज्ञान ये दो ही कारण मिथ्योपदेशके हो सकते हैं । जिसमें कषाय नहीं है, अज्ञान नहीं है, वह दुनियाका अकल्याण या वञ्चना नहीं कर सकता । जैनधर्मका सिद्धान्त है कि जब तक आत्मामें कषाय रहती है तब तक उसे सत्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि बिना वीतरागताके हम अपने अनुभवोंसे वास्तविक सिद्धान्त निश्चित नहीं कर सकते। एक घटनाका रागीके ऊपर जो प्रभाव पड़ता है, उससे जुदा ही असर वीतरागके ऊपर पड़ता है । वह उसकी वास्तविकताको समझ जाता है—उसके ऊपर व्यापक दृष्टिसे विचार करता है । इसलिये सत्यज्ञान प्राप्त करनेके लिये वीतरागता पूर्ण आवश्यक है। बीतरागता जितनी अधिक होगी, ज्ञान उतना ही अधिक पूर्ण और सत्य होगा । जहाँ वीतरागताका अन्त है, वहाँ सत्यज्ञानका भी अन्त है । जो वीतरागता (निःकषायता ) कठोरसे कठोर उपसर्गोके आनेपर भी या बड़ेसे बड़े प्रलोभनके मिलनेपर भी चलित नहीं होती वही पूर्ण वीतरागता कहलाती है । उसे ही जैन-शास्त्रोंमें 'यथाख्यात चारित्र'के नामसे कहा गया है । यदि यह वीतरागता क्षणिक नहीं है तो नियमसे केवलज्ञान पैदा कर देती है। जैनशास्त्रोंके अनुसार 'क्षायिक यथाख्यात' चारित्रके होनेपर केवलज्ञान, प्राप्त करनेके लिये विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । इसका कारण यही है कि पहले जिस तत्त्वका कषाय होनेके कारण पूर्ण सत्यरूपमें अनुभव नहीं होता था, यथाख्यात चारित्रके प्राप्त होनेपर वह होने लगता है। यही केवलज्ञान है।
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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