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________________ महात्मा महावीर कहते ह कि ' हम लोग ऐसे नहीं हैं, हम ऐसी बातें नहीं मान सकते' आदि । ९५ यहाँ एक बात और भी ध्यान देनेकी है कि ये दोनों आचार्य देवागम, नभोयान, चामर आदि विभूतियोंको मष्करी आदि जैनेतर धर्मगुरुओं में भी मानते हैं । इसलिये देवागम, नभोयान आदि शब्दोंका कोई ऐसा साधारण अर्थ करना चाहिये जो महावीर और मष्करी आदि सबमें संभवित हो । स्वर्गके इन्द्रादि देव महावीरकी भी पूजा करें और मष्करीकी भी पूजा करें, यह तो सम्भव नहीं है और अगर सम्भव हो तो इन्द्रादि देवोंद्वारा पूजे जानेका कोई महत्त्व नहीं रह जाता । इसलिये ' देव ' शब्दका अर्थ दिव्यगुणयुक्त मनुष्य या किसी जातिविशेष या देशविशेषके मनुष्य लिया जाय, यही ठीक मालूम होता है । जैनशास्त्रों में पाँच तरहके देवोंका उल्लेख मिलता है - भव्यद्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव, भावदेव । जो मनुष्य मरनेके बाद देवगतिमें पैदा होनेवाले हैं अर्थात् जिनका जीवन इतना अच्छा है कि उनके विषय में यह कहा जा सकता है कि वे मर करके देव होंगे वे भव्यद्रव्य देव हैं । राजा आदि वैभवकी दृष्टिसे श्रेष्ठ कहलानेवाले मनुष्य नरदेव हैं । संयममें श्रेष्ठ साधुलोग धर्मदेव हैं । तीर्थंकर देवाधिदेव हैं । देवगतिके जीव भावदेव हैं । इस जगत् में जहाँ देवोंका जिकर आवे वहाँ प्रारम्भके चार भेदोंमेंसे ही कोई भेद लेना उचित है । १ – कतिविधा णं भंते देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! पञ्चविधा देवा पण्णत्ता । तं जहा- भवियदव्वदेवा नरदेवा धम्मदेवा देवाहिदेवा भावदेवा य । - भगवती १२-९-४६१
SR No.010098
Book TitleJain Dharm Mimansa 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1936
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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