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________________ २. इससे हमारा चंचल चित्त जो लगातार एकही विचार पर लगा नहीं रह सकता, इमपकार 'विचार परिवर्तन' (Variation of thoughts) हाजान मे, आसानी में' मक जाना है। ३. जिमप्रकार किमी गानवाने का मन बाजे की सुर ताल की महायना में ज्यादा लगता है उसी प्रकार 'द्रव्य पूजा' . के द्वारा 'भाव पूजा में ज्यादा ठहरना है। ____ अब हमें उपरोक्त तीनों बातों की विवेचना करके देखना है कि हमाग यह उत्तर कहाँ तक ठीक है: १. निस्सन्देह पूजा के दो भेद, द्रव्यपूजा और भाव पूजा, जैन शास्त्रों में माने गये हैं। किन्तु उस समय के जैनाचार्य वचन और शरीर को अन्य व्यापारों से हटाकर उन्हें अपने पज्य के प्रति स्तुनि पाठ करने और अंजुलि जोड़ने आदि रूप मे एकाग्र करने को 'द्रव्य पूजा और मन के काम करने को 'भाव पूजा' मानते थे जैसा कि श्री अमितगनि प्राचार्य के निम्नलिखित वाक्य से प्रकट है बचो विग्रह संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । नत्र मानस संकोचो भावपूजा तिनै: 117 অস্কোর
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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