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________________ भ्रष्ट होकर अपने लक्ष्य स्थान से बहुत दूर जा पहुँचा है और तरह २ की घोर यातनाओं को भोगना फिर रहा है । अवश्य ही ऐसी अवस्था में जब कि सिंह व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु चारों ओर मुंह फैलाये फिर रहे हैं और उसका जविन भी संशययुक्त दिखाई देरहा है उस समय उस मनुष्य के लिये उस पथप्रदर्शक से बढकर श्रद्धास्पद और आदरणीय और कौन हो सकता है जो उसको सर्व प्रकार के दुःखों मे बचने का उपाय बताकर उसके लक्ष्यस्थान तक पहुंचने का ठीक २ मार्ग बतादे । ठीक ऐसी ही अवस्था हम संसारी जीवों की भी है। जिन महान आत्माओं ने क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कपायों को वश में करके और अपनी इन्द्रियों का दमन करके, अपनी आत्मा से भिन्न समस्त वस्तुओं से ममत्व ( राग द्वेप ) त्याग दिया है, जो मर्व प्रकार की क्षुधा, तृषा आदि वेदनाओं और सैकड़ों प्रकार के उपसर्गों को सहन करते हुए भी अपने कर्तव्य मार्ग से सुख दुःख का भोग करावें। ४)मोहनीय, जो आत्मा के श्रद्धान और चारित्र ( शांति) को बिगाड़ें ५) आयु, जो किसी शरीर में आत्मा को रोक रक्खे (६) नाम, जो शरीर की अच्छी बुरी रचना करें (७) गोत्र, जो ऊँच नीच पद प्राप्त करावें और () अंतराय, जो आत्मा के वार्य या लाभ भोग आदि में विघ्न करें।
SR No.010097
Book TitleJain Dharm aur Murti Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirdhilal Sethi
PublisherGyanchand Jain Kota
Publication Year1929
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size2 MB
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