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________________ ८० जैनधर्म ण हि सो समवायादो अत्यतरिदो दुणाणदो णाणी। अण्णाणीति य वयण एगत्तप्पसाधकं होदि ||४|| --पञ्चास्ति । अर्थात्-'यदि ज्ञानी और ज्ञानको परस्परमें सदा एक दूसरेसे भिन्न पदार्थान्तर माना जायगा तो दोनो अचेतन हो जायेगे। यदि कहा जायेगा कि ज्ञानसे भिन्न होनेपर भी आत्मा ज्ञानके समवायसे शानी होता है तो प्रश्न होता है कि जानके साथ समवाय सम्बन्ध होनेसे पहले वह आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी था तो उसमें ज्ञानका समवाय मानना व्यर्थ है। यदि अज्ञानी था तो अज्ञानके समवायसे अज्ञानी था या अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे अज्ञानी था ? अज्ञानीमे अज्ञानका समवाय मानना तो व्यर्थ ही है। तथा उस समय उसमें ज्ञानका समवाय न होनसे उसे ज्ञानी भी नहीं कहा जा सकता। इसलिये अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी ही ठहरता है। ऐसी स्थितिमे जैसे अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी हुआ वैसे ही ज्ञानके साथ भी आत्माका एकत्व मानना चाहिये। । साराश यह है जनदर्शन गुण और गुणीके प्रदेश जुदे नहीं मानता। जो आत्माके प्रदेश है वे ही प्रदेश ज्ञानादिक गुणोके भी है, इसलिये है उनमे प्रदेशभेद नहीं है। और जुदे वे ही कहलाते है जिनके प्रदेश भी 'जुदे हों। अत जो जानता है वही ज्ञान है। इसलिये ज्ञानके सम्बन्धस द आत्मा ज्ञाता नहीं है, किन्तु ज्ञान ही आत्मा है। जैसा कि कहा है-- ___णाण मम ति मद वट्टदि गाणं विणाण अप्पाण। तम्हा गाण अप्पा अप्पा गाण व अण्ण वा ॥२७॥ ~प्रवचन ____ अर्थात्-'ज्ञान आत्मा है ऐसा माना गया है। चूंकि ज्ञान आत्मा के विना नहीं रहता अत ज्ञान आत्मा ही है। किन्तु मात्मामें अनक ९ गुण पाये जाते है अत आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और अन्य गुण
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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