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________________ २३० जनधर्म अपने राज्यकालमे कलिंग देशपर चढाई की थी। और वह कलिगके राजघरानसे श्रीऋषभदेवकी प्रतिमा उठाकर ले गये थे। इस घटनाके ३०० वर्ष वाद कलिगाधिपति खारवेलने जव मगधपर चढाई करके उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्रने वह प्रतिमा खारवेलको लोटाकर उसे प्रसन्न कर लिया । एक पूज्य वस्तुका इस प्रकार ३०० वर्ष क एक राजघरानेमे सुरक्षित रहना इस वातका साक्षी है कि न्दवशमे उसकी पूजा होती थी। यदि ऐसा न होता और नन्दवश निधर्मका विरोधी होता तो उक्त मूर्ति इस प्रकार सुरक्षित नही रहती। द्राराक्षस नाटकमें भी यह उल्लेख है कि चाणक्यने नन्द राजाके मत्री क्षसको विश्वास देकर फांसनेके लिये अपने एक चर जीवसिद्धिको पणक बनाकर भेजा था । और क्षपणकका अर्थ कोषग्रन्थोमे नग्न न साघु पाया जाता है । अत नन्दका मत्री राक्षस जैन था और जा नन्द भी सम्भवत जैन था। मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त । (ई० पू० ३२०) मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे। इनके समयमे मगधमे १२ वर्षका कर दुर्भिक्ष पड़ा था। उस समय ये अपने पुत्रको राज्य सौंपकर अपने गुरु जैनाचार्य भद्रबाहुके साथ दक्षिणकी ओर चले गये थे। और प्या करते हुए बारह वर्ष पश्चात् चन्द्र गिरि पर्वतपर मृत्युको त हुए थे। इस घटनाके पक्षमे अनेक प्रमाण पाये जाते है। अति तीन नगन्य तिलोयपण्णत्तिमें लिखा है "मुकुटधारी राजाओम अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा धारण की। के पश्चात् किसी मुकुटधारी राजाने जिनदीक्षा नहीं ली।' पहले इतिहासज्ञ इस कथनकी सत्यतामे विश्वास करनेको र नहीं थे। किन्तु जब मैसूर राज्यमे श्रवणवेलगुल नामक के चन्द्रगिरि पर्वनपरके लेख प्रकागमे आये तो इतिहामजोको ११० १४६
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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