SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास : राजसुखको तिलाञ्जलि देकर प्रवजित हो गये। एक बार ' अहिच्छेत्रके वनमे ध्यानस्थ थे। परसे उनके पूर्वजन्मका वैरी को देव कही जा रहा था। इन्हें देखते ही उसका पूर्वसचित वैरभा। भडक उठा। वह उनके ऊपर ईंट और पत्थरोकी वर्षा करने लगा। जव उससे भी उसने भगवानके ध्यानमे विघ्न पडता न देखा तो मूसालाधार वर्षा करने लगा। आकाशमे मेघोने भयानक रूप धारण क लिया, उनके गर्जनतर्जनसे दिल दहलने लगा। पृथ्वीपर चारो बोच पानी ही पानी उमड़ पड़ा। ऐसे घोर उपसर्गके समय जो नाग औष नागिन मरकर पाताल लोकमे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए थे, वे अप उपकारीके ऊपर उपसर्ग हुआ जानकर तुरन्त आये। पद्मावती अपन मुकुटके ऊपर भगवानको उठा लिया और घरणेन्द्र सहस्रफणवाले सर्पका रूप धारण करके भगवानके ऊपर अपन, फण फैला दिया और इस तरह उपद्रवसे उनकी रक्षा की। उसी सम पार्श्वनायको केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई, उस वरी देवने उनके घर सीस नवाकर उनसे क्षमा याचना की। फिर करीब ७० वर्ष जगह-जगह विहार करके धर्मोपदेश करनेके वाद १०० वर्षकी उम्रमे वे सम्मेद शिखरसे निर्वाणको प्राप्त हुए। इन्हीके नामसे आजसम्म दशिखर पर्वत 'पारसनाथहिल' कहलाता है। इनकी जो मूर्तियाँ पा, जाती है, उनमे उक्त घटनाके स्मृतिस्वरूप सिरपर सर्पका फन बना हुमा होता है। जैनेतर जनतामे इनकी विशेष ख्याति है। ५ कही तो जैनोका मतलब ही पार्श्वनाथका पूजक समझा जाता है। भगवान महावीर भगवान महावीर अन्तिम तीर्थड्र थे। लगभग ६०० ई० पू० विहार प्रान्तके कुण्डलपुर नगरके राजा सिद्धार्थके धरमे उनक जन्म हुआ। उनकी माता' त्रिशला वैशालीनरेश राजा चेटककी पुत्री (१) श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार भगवान महावीरकी माता त्रिशला चेटककी बहिन थी। तथा महावीरका विवाह भी हुआ था।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy