SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३ विविध ३५३ वह नग्न रहनेकी भी प्रशंसा करता है और कहता है ऋतु ही तुम्हारे लिये सम्पूर्ण वस्त्र है ।' उसका कहना है कि भिखारीको पैसा देनेके बदले मक्खीको जीवनदान देना श्रेष्ठ है । • नग्नता, जीवरक्षा, अन्नाहार और मधुका त्याग आदि विषयोंपर उसका पक्षपात यह वतलाता है कि इसके विचारो के ऊपर जैनधर्मका, खास करके दिगम्बर सम्प्रदायका असर था । अबुल् अला बहुत समय - : तक वगदादमे रहा था । यह नगर व्यापारका केन्द्र था । सम्भव है कि जन व्यापारी वहाँ गये हों और उनके साथ कविका सम्वन्ध हुआ हो । 1 । . उसके लेखोपरसे जाना जाता है कि उसे भारतके अनेक धर्मोका ज्ञान था । भारतके साधु नख नही काटते इस बातका उसने उल्लेख किया है । वह मुर्दा जलानेकी पद्धतिकी प्रशंसा करता है । भारतके साघु चिताकी अग्निज्वालामे कूद पड़ते है इस बातपर अवुल अलाको वहुत आश्चर्य हुआ था । मृत्युके इस ढंगको जैन अवमं मानते है । 'वन सके तो केवल आहारका त्याग करो' अवुल अलाके इस वचनसे यह अनुमान किया जा सकता है कि उसे जैनो के सल्लेखनाव्रतका ज्ञान था । किन्तु यह व्रत वह स्वयं पाल सकता इतना उसका आत्मा सवल नही था। इन सब बातोसे ऐसा लगता है कि अवुल् अला जैनों के परिचयमे आया था और उनके कितने ही धार्मिक सिद्धान्तोको उसने स्वीकार किया था ।. : 1 बैल { 1
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy