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________________ जैनधर्म ३१३४८ इसलिये वह हिन्दू धर्मकी विद्रोही सन्तान है, सर्वथा भ्रान्त है। जनधर्म एक स्वतत्र धर्म है। उसके आद्य तीर्थङ्कर श्रीऋपभदेव 'न्थे जो राम और कृष्णसे भी पहले हो गये है और जिन्हें हिन्दुओंने 'विष्णुका अवतार माना है। उन्हीके विचारोकी झलक उपनिषदोमे मिलती है। जैसा कि "उपनिपद विचारणा के निम्न शब्दोसे भी 'स्पष्ट है___ "उपनिषदोना छेवटना भागां वेदवाह्य विचारवाला साधुओना आचारविचारो अरण्यवासिओमा पेठेला जणाय छे, अने तेमाँ जैन अने बौद्ध सिद्धान्तोना प्रथम वीजे उग्याँ होय ऐम जणाय छे। उदाहरण तरीके "सर्वाजीव ब्रह्मचक्रमा हस एटले जीव भमे छे, जीवधन परमात्मा छे, जीव जे जे शरीरमा प्रवेशे छे ते ते शरीरमय होइ जाय छ, केटलाक परमहसी "निर्गन्थ अने शुक्लध्यान परायण 'हता" आ विगेरे उपनिषद् वाक्यों श्रीमहावीर पूर्वभावी निर्ग्रन्थ साधुओंना विचारोना पूर्व रूप छ । जनोना आद्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव आवर्गना, निर्ग्रन्थ' साधु हता। अने पाछल थी तेमने हिन्दुधर्मीओए विष्णुना अवतार मान्या छे।" : हिन्दूधर्म और जैनधर्मके सिद्धान्तोमें बहुत अन्तर है। जैन वेदको नहीं मानते, स्मृति ग्रन्थों तथा ब्राह्मणोके अन्य प्रमाणभूत अन्योको भी प्रमाण नहीं मानते। इसके सिवा दोनोमे महत्त्वका प्रभेद तो यह है कि जनधर्मके धार्मिक तत्त्व और उनकी सरणि स्पष्ट और निश्चित है, किन्तु हिन्दूधर्ममें परस्पर विरोधी अनेक सिद्धान्त है "और वे सब अपने सच्चे होनेका दावा करते है । हिन्दू जगत्का नियामक और रचयिता ईश्वरको मानते है, जैनी नहीं मानते। हिन्दू युग-युगमे जगत्की सृष्टि और प्रलयको मानते है, जैन जगतको अनादि अनन्त से जुदो प्रकारकी है और ये दोनो समान नही हो सकती। दोनोमें जो समानता है वह केवल शाब्दिक है। . १पु० २०१।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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