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________________ ३४२ जैनधर्मं क्रियाकाण्ड और प्रचलित धर्मसे पूरी तरह पृथक हो जाना चाहिये। भगवद् गीता और बादके उपनिषदोंने अतीतका हिसाब बैठानेकाऔर पहले से भी अधिक कट्टरतासे तर्क विरुद्ध सिद्धान्तो के सम्मिश्रण करनेका प्रयत्न किया। इस प्रकार उपनिषद्कालके पश्चात् प्रचलित धर्मके इन उग्रपन्थी और स्थित पालक विरोधियोंके केन्द्र भारतके विभिन्न भागों में स्थापित हुए- पूर्वमे वौद्ध और जैनधर्मने पैर जमाया और वैदिक धर्मके प्राचीनगढ़ पश्चिममें भगवद्गीताने ।" '' " उक्त चित्रणमे जहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्मके उत्थानकी बात • आती है वहाँ हम सर राधाकृष्णन्‌को भी उसी पुरानी बातको दुहराते हुए पाते है कि जैनधर्मने उपनिषदको 'शिक्षाओं को माना । किन्तु वैदिकधर्म और उपनिषद के सिद्धान्तो के मिश्रणको तर्कविरुद्ध बतलाकर भी और यह मानकर भी कि पार्श्वनाथ जैनधर्मके तीर्थङ्कर थे जिनका । निर्वाण ७७६ ई० पू० में हना था तथा जैनधर्मं उससे पहले भी मौजूद था, वे उपनिषदके उन सिद्धान्तोंको जो जैनधर्मसे मेल खाते है, किन्तु वैदिकधर्मसे मेल नही खाते जैनधर्मके सिद्धान्तं माननेके लिये शायद तैयार नही है । किन्तु उन्होने ही वैदिककालका जो खाका खींचा है उससे तो यही प्रमाणित होता है कि जब वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध हुआ और जनताकी रुचि उससे हटने लगी तो वैदिकोंने अपनी स्थिति बनाये रखनेके लिये अपने विरोधी धर्मोकी - जिनमे जैनवमं प्रमुख था - आध्यात्मिक शिक्षाओंके आधार पर उपनिषदोकी रचना की। किन्तु उपनिषद भी बातें तो अध्यात्मकी पा करते थे और समर्थन वैदिक ferreuser ही किये जाते थे, जिसके स्व विरोधी वरावर मौजूद थे। फलतः बिरोध बढने लगा । इसी समयके ਬਿ लगभग भगवान पार्श्वनाथ हुए। उनके उपदेशोंने भी अपना असर दिखलाया। भगवान पार्श्वनाथ के लगभग २०० वर्षके बाद ही विहारमे महावीर और बुद्धका जन्म हुआ । वैदिकवर्म में विचारशास्त्र उच्च विद्वानों को ही वस्तु बनी हुई थी, परन्तु इस युगमें इसका ६
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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