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________________ ३१० संतधर्म करनेवाले नही थे। किसी देश में बाहरसे आकर बमनेवालों और फिर धीरे-धीरे उस देशपर अधिकार जमानेवालो की प्राय. यह प्रवृत्ति होती है कि वे उस देशके आदिवानियोंको जंगली और अजानी ही दिखानेका प्रयत्न करते हैं। ऐसा हो प्रारम्भमें अग्रेजोने किया और सम्भवत ऐसा ही वैदिक आर्यों और उनके उत्तराधिकारियोने किया है। वे, अब भी इसी मान्यताको लेकर चलते है कि जैनधर्मका उद्गम वौद्धवके साथ साथ या उससे कुछ पहले उपनिपत्कालके बहुत बादमें उपनि पदोat far आधारपर हुआ। जब कि निश्चित रीति से प्राय aभी इतिहासशीने यह स्वीकार कर लिया है कि जैनोके २३वं तीर्थङ्कर श्रीपारसनाथ जो कि ८०० ई० पू० में उत्पन्न हुए ये एक ऐतिहासिक महापुरुष थे । किन्तु वे भी जैनधर्म के संस्थापक नहीं थे । " सर राधाकृष्णन अपने भारतीय' दर्शनमें लिखते हैं-"जैन पर पराके अनुसार जैनधर्मके संस्थापक श्री ऋषभदेव ये जो कि शताब्दियों पहले हो गये हैं । इस बातका प्रमाण है कि ई० पू० प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पूजा होती थी । इसमें सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ से भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदम ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थङ्करों के नामोका निर्देश है। भागवतपुराण इस वानको पुष्टि करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे ।" न ऐसी स्थितिमें उपनिषदोकी शिक्षाको जैनधर्मका आधार ब लाना कैसे उचित कहा जा सकता है ? क्योंकि जिसे उपनिपद्काल कहा जाता है उस कालमें तो वाराणसी नगरी में भगवान पाखें.. नायका जन्म हुआ था। एक दिन कुमार अवस्थामे पार्श्वनाथ गंगाकै किनारे घूमने के लिये गये थे । वहाँ कुछ तापस पञ्चापि रहे थे। पार्श्वनाथने आत्मज्ञानहीन इस कोरे तपका विरोध किया और वतलाया कि जो लकड़ियाँ जल रही है इनमें नाग-नागिनीका १ इडियन फिलासफी ( सर एस० राधाकृष्णन्) भा० १, पृ० २८७ १
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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