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________________ ३१२ जैनधर्म त्रियोका शास्त्रार्थ हो गया। मत्री पराजित हो गय । क्रुद्ध मंत्री पत्रिमे तलवार लेकर मुनियोको मारनेके लिये निकले । मार्गमें गुरुकी प्राज्ञासे उसी शास्त्रार्थके स्थानपर ध्यानमें मग्न अपने प्रतिद्वन्द्वी मुनिको देखकर मत्रियोने उनपर वार करनेके लिये जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, उनके हाथ ज्योंके त्यों रह गये। दिन निकलनेपर राजाने त्रियोको देशसे निकाल दिया। चारोमत्री अपमानित होकर हस्तिनापुरके राजा पनकी शरणमें आये। वहाँ बलिने कौशलसे पद्म राजाके एक शत्रुको पकड कर उसके सुपुर्द कर दिया। पद्मने प्रसन्न होकर मुंहमांगा वरदान दिया । बलिने समयपर वरदान मांगनेके लिये कह दिया। कुछ समय बाद मुनि अकम्पनाचार्यका संघ विहार करता हुआ हस्तिनापुर आया और उसने वही वर्षावास करना तय किया । जव बलि वगैरहको इस बातका पता चला तो पहले तो वे बहुत घबराय, पीछे उन्हें अपने अपमानका बदला चुकानेकी युक्ति सूझ गई । उन्होने वरदानका स्मरण दिलाकर राजा पद्मसे सात दिनका राज्य मांग लिया। राज्य पाकर बलिने मुनिसपके चारों ओर एक बाडा खडा करा दिया और उसके अन्दर पुरुषमेध यज्ञ करनेका प्रबन्ध किया। __इधर मुनियोपर यह उपसर्ग प्रारम्भ हा उघर मिथिला नगरीमे वतमान एक निमित्तज्ञानी मुनिको इस उपसर्गका पता लग गया। उनके मुंहसे हा हा' निकला । पासमें वर्तमान एक क्षुल्लकने इसका कारण पूछा तो उन्होंने सब हाल बतलाया और कहा कि विष्णुकुमार मुनिको विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है वे इस सकटको दूर कर सकते है। क्षुल्लक तत्काल मुनि विष्णुकुमारके पास गये और उनको सब समाचार सुनाया। विष्णुकुमार मुनि हस्तिनापुरके राजा पद्मके भाई थे । वे तुरन्त अपने भाई पद्यके पास पहुंचे और बोले-पधराज ' तुमने यह क्या कर रखा है ' कुरुवशमें ऐसा अनर्थ कभी नहीं हुआ। यदि राजा ही तपस्वियोपर अनर्थ करने लगे तो उसे कौन दूर कर सकेगा?
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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