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________________ २९६ जनधर्म आज इस सम्प्रदायका एक भी अनुयायी नहीं है। इसका लोप तव और किन किन कारणोसे हुआ, यह बतला सकना कठिन है, फिर पी विक्रमकी पन्द्रहवी शताब्दी तक इस सम्प्रदायके जीवित रहतेक प्रमाण मिलते है; क्योकि कागवाडेके ग० स० १३१६ (वि० स० १४५१) के गिलालेखमें यापनीयसपके वर्मकीति और नागचन्द्रके, समाधिलेखोका उल्लेख है। ४ अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय श्री रत्ननन्दि आचार्यने अपने भद्रबाहु चरिवमें अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका उल्लेख किया है। उन्होने लिखा है कि यह अद्भुत अर्द्धस्फालक मत कलिकालका वल पाकर जलमे तेलकी बूंदकी तरह सब लोगोमे फैल गया । उन्होने इस मतको श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके अन्तमें उत्पन्न हुमा बतलाया है और अन्तमें लिखा है कि वल्लभीपुरमे पूरी तरहसे श्वेतवस्त्र ग्रहण करनेके कारण विक्रम राजाके भत्यकालसे १३६ वर्षक वाद न्वता'म्बरमत प्रसिद्ध हुआ। श्रीरत्ननन्दिके मतसे कुछ दिगम्बर मुनियोन जव अपनी नग्नताको छिपानेके लिए खण्ड दस्त्र स्वीकार कर लिया तो उनसे अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ। और अर्द्धस्फालक सम्प्रदायसे ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई। - मथुराके कंकाली टोलेसे प्राप्त जैन पुरातत्त्वमें कुछ ऐसे आयागपट प्राप्त हुए है, जिनमे जैन साधु यद्यपि नग्न अकित है परन्तु वे अपनी नग्नताको एक वस्त्रखण्डसे छिपाये हुए है प्लेट न० २२ मे कण्ह श्रमणका चित्र अकित है, उनके वायें हाथकी कलाईपर एक वस्त्रखण्ड लटक रहा है जिसे आगे करके वे अपनी नग्नताको छिपाये हुए है। यही अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका रूप जान पड़ता है। (१) "अतोऽदंफालन लोके व्यानसे मतमद्भुतम् । कलिकालवल प्राप्य सलिले तैलविन्दुवत् ॥३०॥"
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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