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________________ सामाजिक रूप २६ प्रसिद्ध हुआ । श्रीजगन्चन्द्र सूरि और उनके शिष्योका दैलवारा प्रसिद्ध मन्दिरोंका निर्माता वस्तुपाल बड़ा सन्मान करता था इससे गुजरातमे आजतक भी तपागच्छका बड़ा प्रभाव चला आता है श्वेताम्बर सम्प्रदायमे यह गच्छ सबसे महत्त्वका समझा जाता है। इस अनुयायी बम्बई, पंजाब, राजपूताना, मद्रास' आदि प्रान्तोमे पर जाते है | श्रीजगन्चन्द्र सूरिके दो शिष्य थे, देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्र सूरि । इन दोनोंमें मतभेद हो गया । विजयचन्द्र सूरिने कठोर मचा के स्थानमे शिथिलाचारको स्थान दिया । उन्होंने घोषणा की कि गीता ' मुनि वस्त्रोको गठडियों रख सकते है, हमेशा घी दूध खा सकते है, कप घो सकते हैं, फल तथा शाक ले सकते है, साध्वी द्वारा लाया हु आहार खा सकते हैं, और श्रावकों को प्रसन्न करनेके लिए उनके बैठकर प्रतिक्रमण भी कर सकते है । स 4 ४ पार्श्वचन्द्र गच्छ - यह तपागच्छकी शाखा है । आचार्य पार्श्वचन्द्र वि० सं० १५१५ में इस गच्छसे अलग हो गये कारण यह था कि इन्होने कर्मके विषयमे नया सिद्धान्त खडा कि था और नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और छेद ग्रन्थोंको प्रमाण नही मा थे। इस गच्छके अनुयायी अहमदाबाद जिलेमें पाये जाते है । ५ सार्धं पौर्णमीयक गच्छ-पौर्णमीयक गच्छकी स्थापना चन्द्रप्र सूरिने की थी । कारण यह था कि प्रचलित क्रिया-काण्डसे उनक मतभेद था तथा वे महानिशीथ सूत्रकी गणना शास्त्रग्रन्थोंमें करते थे। आचार्य हेमचन्द्रकी आज्ञासे राजा कुमारपालने इस अनुयायियों को अपने राज्यमेसे निकलवा दिया था। इन दोनो मृत्युके बाद एक सुमतिसिंह नामके पौर्णमीयक कुमारपालकी रा धानी अणहिलपुरमे आये और उन्होने इस गच्छको नवजीवन दिया तबसे यह गच्छ सार्धं पौणमीयक कहलाया । इस गच्छके अनुया आज नही पाये जाते ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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