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________________ २५६ जैनधर्म ___ श्वेताम्बराचार्य मेघविजयने वि० स० १७५७ के लगभग बागरम युक्ति प्रवोध नामका एक अन्य रचा है। यह ग्रन्थ पं० वनारसीदासजीके मतका खण्डन करनेके लिये रचा गया है। इसमे वाणारसी मतका वरूप वत्तलाते हुए लिखा है "तम्हा दिगंवराण एए भटारमा विणो पुज्जा। तिलतुसमेत्तो जैसि परिग्गही व ते गुरुणो॥१॥ जिणपडिमाण भूतणमल्लारहणाइ अगपरिचरण । वाणारसियो वारइ दिगवरस्सागमाणाए ॥२०॥" अर्यात्-'दिगम्बरोंके भट्टारक भी पूज्य नही है। जिनके तिलपुष मात्र भी परिग्रह है वे गुरु नही है। वाणारसी मतवाले जिन प्रतिनाओंको भूषणमाला पहनानेका तथा अंग रचना करनेका भी निषेध दगम्बर आगमोंकी आज्ञाते करते है। ___ आजकल जो तेरह पन्य प्रचलित है वह भट्टारकों या परिसहधारी सुनियोंको अपना गुरु नही मानता और प्रतिमाओंको पुष्पमालाएं चढाने पौर केसर लगानेका भी निषेध करता है, तथा भगवानकी पूजन पामग्रीमें हरे पुष्प और फल नही चढाता। उत्तर भारतमें इस पत्यका उदय हुआ और धीरे-धीरे यह समस्त देशव्यापी हो गया । इसके पभावसे भट्टारकी युगका एक तरहसे लोप ही हो गया। किन्तु इस पन्थभेदसे दिगम्बर सम्प्रदायमे फूट या वैमनस्यका बीजापण नहीं हो सका। आज भी दोनों पन्थोंके अनुयायी वर्तमान है, केन्तु उनमें परस्परमे कोई वैमनस्य नहीं पाया जाता । चूंकि आज दोनों पन्योंका अस्तित्व कुछ मंदिरों में ही देखनेमे आता है, अत जव भी किन्ही दुराग्रहियोंमें भले ही खटपट हो जाती हो, किन्तु साधारणतः दोनों ही पन्थवाले अपनी अपनी विधिसे प्रेमपूर्वक पूजा करते हुए पार्य जाते है। एक दो स्थानोंमें तो २० और १३ को मिलाकर उसका आधा करके साढ़े सोलह पन्थ भी चल पडा है। आजकलके अनेक निष्पक्ष समझदार व्यक्ति पन्य पूछा जानेपर अपनेको साढ़े सोलह पन्थी कह हते हैं। यह सव दोनोके ऐक्य और प्रेमकाही सूचक है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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