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________________ जनधर्म था । वह स्त्रियोंको जिनदीक्षा देता था, क्षुल्लकोकी वीरचर्याका विधान करता था, जटा धारण करता था और एक छठा गुणन्नत (अणु त) वतलाता था। इसने पुराने शास्त्रोको अन्यथा रचकर भूढ लोकोमें मिथ्यात्वका प्रचार किया था। इससे उसे श्रमणसघसे निकाल दिया गया था। तब उसने काष्ठा सघकी स्थापना की थी। काष्ठासंघको स्थापनाके दो सौ वर्ष बाद मथुरामे माथुर संघको स्थापना रामसेनने की थी। इस संघके साधु पीछी नहीं रखते थे इसलिये यह संघ निम्पिच्छ' कहा जाता था। ____यद्यपि इन तीनो सघोंको देवसेन आचार्यने जनाभास कहा है किन्तु इनका बहुत-सा साहित्य उपलब्ध है और उसका पठन-पाठन भी दिगम्बर सम्प्रदायमें होता है । हरिवंश पुराणके रचयिताने आचार्य देवनन्दिके पश्चात् वज्रसूरिका स्मरण किया है और उनकी उक्तियोंका धर्मशास्त्र के प्रवक्ता गणधरदेवकी तरह प्रमाण कहा है। यह वज्रसूरि वही जान पड़ते है जिन्हें द्राविड सघका संस्थापक कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न होता है कि दर्शनसारके रचयिताने इन्हें जनाभास क्यो कहा ? क्योकि दर्शनसारकी रचना हरिवश पुराणके पश्चात् वि० स० ६६० मे हुई है। इसका समाधान यह हो सकता है कि देवसेन सूरिने दर्शनमारमें जो गाथाएँ दी है, पूर्वाचार्योकी दृष्टिम १ "आसी कुमारमेणो णदियडे विणयमेणदिवरायनो । मणामभंजणेग य अगहिर पुदिनो जादो ॥३॥ परिवग्जिकण पिच्छ चमर चित्तण मोहकलिदेण। उम्मन्ग मारिन वागविगएनु सब्बैमु ॥३४॥ सत्यीण पुरा दिमा गुल्लयटीयस्य पौरपरिपत्त । मसामोगगण हट प गुणगद पाम ॥३५॥ मो ममणगपनगो मारगेपो गमयमियतो। नमोरगी पटट गय पम्पेदि॥३७॥" न २. 'गो माता माग माग गुग्णा। पामा dि माना ग 1011"- .
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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