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________________ २६४ सामाजिक रूप स्त्री अपने पतिकी तरफसे सम्पत्तिकी मालकिन हो सकती है, अपने मृत पति तथा उसके उत्तराधिकारियोकी सम्मतिके विना दत्तक ले सकती है। जैनसंघमे चारो वर्णके लोग सम्मिलित हो सकते थे। शूद्रको भी धर्मसेवनका अधिकार था। जैसा कि लिखा है'शुद्रोऽप्युपस्कराचारवपुशुद्धयास्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाक् ॥२२॥' सागारधर्माः । अर्थात्-'उपकरण, आचार और शरीरकी शुद्धि होनेसे शूद्र भी, जैनधर्मका अधिकारी हो सकता है। क्योकि काललब्धि आदिके मिलनेपर जातिसे हीन आत्मा भी धर्मका अधिकारी होता है।' किन्तु मुनिदीक्षाके योग्य तीन ही वर्ण माने गये है। किसी 'किसी आचार्यने तीनों वर्णोको परस्परमें विवाह और खानपान करने की भी अनुज्ञा दी है। यह वात जैनसंघकी विशेषताको वतलाती है। कि अहिंसा अणुनतका पालन करनेवालोंमें जैनशास्त्रोंमे यमपाल चण्डालका नाम बड़े आदरसे लिया गया है। स्वामी समन्तभद्रने तो, यहाँतक लिखा है "सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देव विदुर्भस्मगूढाजारान्तरोजसम् ॥२८॥" रत्नकरड श्रा०।' अर्थात्---"सम्यग्दर्शनसे युक्त चाण्डालको भी जिनेन्द्रदेव राखसे ढक हुए अङ्गारके समान (अन्तरंगमे दीप्तिसे युक्त) देव मानते है। जैनसघकी एक दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि प्रत्येक जैनको अपने साधर्मी भाईके प्रति वैसा ही स्नेह रखनेकी हिदायत है जैसा स्नेह गो अपने बच्चेसे रखती है। तथा यदि कोई साधर्मी किस कारणवश धर्मसे च्युत होता था तो जिस उपायसे भी बने उस उपायसे उसे च्युत न होने देनेका प्रयत्न किया जाता था और यह सम्यक्त्वक १. 'परस्पर विवर्णानां विवाह. पक्तिभोजनम्'। यशस्तिलक कि अहिंसा अगा। यह बात जनसंघाबाह और खानपान कर
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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