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________________ ५२२ जैनधर्म ने जाता है तो दोनोके बीचका यह दर्जा होता है। जैसे पहाड़की चोटति दे कोई आदमी लुडके तो जबतक वह जमीनमें नहीं आ जाता तबतक से न पहाडकी चोटीपर ही कहा जा सकता ह और न जमीनपर हो, से ही इसे भी जानना चाहिये। सम्यक्त्व चोटीके समान है, मिथ्यात्व मीनके समान है और यह गणल्यान बीचके ढाल मार्गके समान है। त जब कोई जीव आगे कहे जानेवाले चौथे गणस्यानसे गिरता है भी यह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थानमें आनेके वाद जीव नियम हले गुणस्थानमे पहुँच जाता है। ३ सम्य मिय्यादृष्टि-जैसे दही और गुडको मिला देनेपर नोंका मिला हुआ स्वाद होता है उसी प्रकार एक ही कालमें सम्यव और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणामोंको मम्यमिय्यादृष्टि हते है। ४ असंयतसम्यग्दृष्टि-जिस जीवकी दृष्टि अर्यात् श्रद्धा समीचीन ती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते है । और जो जीव सम्यग्दृष्टि तो होता किन्तु संयम नही पालता वह असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। हा भी है 'णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वा वि । जो सइहदि गिणुत सम्माइट्ठी अविरदो तो ॥२९॥' -गो० जीव० 'जो न तो इन्द्रियोके विषयोंते विरक्त है और न त्रस और स्थावर वोकी हिंसाका ही त्यागी है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये मार्गका द्विान करता है तथा जिसे उसपर दृढ़ आस्था है, वह जीव असंयत म्यन्दृष्टि है।' आगेके सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते है। ५ संयतासयत-जो संयत भी हो और असंयत भी हो उसे यतासंयत कहते है। अर्थात् जो त्रस जीवोकी हिंसाका त्यागी है और थाशक्ति अपनी इन्द्रियोपर भी नियंत्रण रखता है उसे संयतासंयत कहते है। पहले जो गृहस्थका चारित्र बतलाया है वह संयतासयतका
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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