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________________ चारित्र २१ इस प्रकार प्रात कालीन देवबन्दनाको करके फिर सिद्धोकी, शास्त्र की और अपने गुरु आचार्य वगैरहकी भक्ति करनी चाहिये। इस का प्रभातमे दो घडीतक प्रात.कालीन कृत्य करके फिर साधुको स्वाच्या करना चाहिये। उसके बाद भोजन करनेकी इच्छा होनेपर २॥ त्रो विधिके अनुसार भोजन ग्रहण करना चाहिये । और भोजन . . होने पर अगले दिनतकके लिए भोजनका त्याग कर देना चाहिये फिर लगे हुए दोषोंका शोधन करके मध्याह्नके बाद दो घड़ी - ५ स्वाध्याय करना चाहिये । जब दिन दो घडी बाकी रहे तो स्वाच्या समाप्त.करके और दिन भरके दोषोंका परिमार्जन करके . पायक वन्दना करनी चाहिये। फिर देवबन्दना करके दो घड़ी रात जाने५ स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और आधी रात होनमें दो घड़ी वाक रह जानेपर समाप्त कर देना चहिये । फिर चार घड़ीतक म एक करवटसे शयन करना चाहिये । यह साधुका नित्य कृत्य है नैमित्तिक कृत्य मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे जाना जा सकता है। साधुके सम्बन्धमें और जो बाते जैन शास्त्रोमे लिखी है उनम. कुछ इस प्रकार है साधु जब धूपसे छायामे या छायासे धूपमे जाते है तो मोसंखी पीछीसे अपने शरीरको साफ करके जाते है। इसी तरह जव बै है तो उस स्थानको पीछीसे साफ करके बैठते है जिससे कोई जीवन उनके नीचे दबकर मर न जाये। जिस घरमे पशु बंधे हों या कर बुरा कार्य होता हो उस घरमें साधुको भोजनके लिए नहीं जाना चाहिये तथा घरके अन्दर जाकर बार बार दाताकी ओर नहीं देखना चाहिये यदि संघमे कोई साधु बीमार हो जाये तो उसकी कमी भी उपेक्षा नह करना चाहिये । अकेले साधुको कही नही जाना चाहिये, जव कहा जाये तो दूसरे साधुके साथ ही जाना चाहिये । गुरुको देखते ही 6 खड़े होना चाहिये और उन्हे नमस्कार करना चाहिये। गुरु जो वस्त
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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