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________________ चारित्र २१५ नहीं रहता और इसलिए वह जो कुछ देता है वह भार समझकर नही देता किन्तु अपना कर्तव्य समझकर प्रसन्नतासे देता है । जहाँ साधु मांगते है और गृहस्थ उन्हें दुरदुराते है वहाँ साधु न आत्मकल्याण कर पाता है और न परकल्याण ही कर पाता है। इसलिए जैन साधु विधिपूर्वक दिये जानेपर ही भोजन ग्रहण करते है। अन्यथा लौट जाते हैं। __भोजनशालामे जाकर वे खड़े हो जाते है और दोनो हाथोको धोकर अंजुलि बना लेते हैं। गृहस्थ उनकी बाएं हाथकी हथेलीपर पास बना बनाकर रखता जाता है और वे उसे अच्छी तरहसे देख भालकर दायें हाथकी अंगुलियोसे उठा उठाकर मुंहमे रखते जाते है। यदि ग्रासमें कोइ जीव जन्तु या बाल दिखायी दे जाता है, तो भोजन छोड़ देते है। भोजनके बहुतसे अन्तराय जैन शास्त्रोंमे बतलाये गये है। पहले लिख आये है कि भोजन केवल जीवन के लिए किया जाता हैं और जीवन रक्षणका उद्देश्य केवल धर्मसाधन है। अत. जहाँ थोड़ी सी भी धर्ममे बाधा आती है भोजनको तुरन्त छोड़ देते है। हाथमें भोजन करना भी इसीलिये बतलाया है कि यदि अन्तराय हो जाये तो' बहुतसा झूठा अन्न छोड़ना न पड़े, क्योंकि थालीमे भोजन करनेसे अन्तराय हो जानेपर भरी हुई थाली भी छोडनी पड़ सकती है। दूसरे, पात्र हाथमे लेकर मोजनके लिए निकलनेसे दीनता भी मालूम होती है।' गृहस्यके पात्रमे खानेसे पात्रको मांजने धोनेका झगड़ा रहता है, तथा पात्रमे खानसे बैठकर खाना होगा, जो साधुके लिए उचित नहीं है, क्योंकि बैठकर खानेसे साधु आरामसे अमर्यादित आहार कर सकता है तथा सुखशील बन सकता है। अत. खड़े होकर आहार करना ही उसके लिए विधेय रखा गया है। साधुको अपना अधिकांश समय स्वाध्यायमें ही विताना होता है , स्वाध्यायके चार काल बतलाये है-प्रात दो घड़ी दिन तिनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और मध्याह्न होनसे दो घड़ी समाप्त कर देना चाहिय । फिर मध्याह्नके बाद दो घड़ी तने५
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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