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________________ चारित २११ के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। खड़े होकर, दोनों भुजाओंको नीचेकी बोर लटकाकर, परके दोनो पजोको एक सीधमें चार अगुलके अन्तरसे रखकर साधुके निश्चल आत्मच्यानमें लीन होनेको कायोत्सर्ग कहते है। २२-लान नहीं करते । गृहस्यके घर जव आहारके लिए जाते है तो गृहस्प ही उनका गरीर पोंछ देते है। २३-दन्तघावन नहीं करते । भोजन करनेके समय गृहस्थके घरपर ही मुखगद्धि कर लेते है। २४-पृथ्वीपर सोते हैं। २५-खड़े होकर भोजन करते है। २६-दिनमें एक बार ही भोजन करते है। २७-नग्न रहते है। २८-केशलोंच करते है। इन २८ मूलगुणोंका पालन प्रत्येक जैन साधु करता है। उसके ऊपर यदि कोई कष्ट आता है तो वह उससे विचलित नहीं होता । भूख प्यासकी वेदनासे पीडित होनेपर भी किसीके आगे हाथ नही पसारता और न मुखपर दीनताके भाव ही लाता है। जैसे विदेशी सर. कारसे असहयोग करनेवाले सत्याग्रही देशकी आजादीके लिए जेलमें डाल दिय जानेपर भी न किसीसे फर्याद करते थे और न कष्टोसे ऊबकर माफी मांगते थे किन्तु अपने लक्ष्यकी पूर्तिमें ही तत्पर रहते थे उसी प्रकार जैन साघु सांसारिक बन्धनोके कारणोसे असहयोग करके कष्टोंसे न घबरा कर आत्माकी मुक्तिके लिए सदा उद्योगशील रहता है। जो लोग उसे सताते है, दुख देते है, अपशब्द कहते है, उनपर वह क्रोध नही करता। उसे किसीसे लडाई झगडा करनेका कोई प्रयोजन नही है वह तो अपने कर्तव्यमें मस्त रहता है। उसके लिए शत्रु-मित्र, महलस्मशान, कंचन-कांच, निन्दा-स्तुति, सब समान है। यदि कोई उसकी पूजा करता ह तो उसे भी वह आशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे वार करता है तो उसकी भी हितकामना करता है। उसे
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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