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________________ चारित्र २०७। रूप धारण कर लिया है, जिसके कारण दुनियाकी आर्थिक विषमताका । संतुलन करना कठिन हो रहा है । जैनधर्मके प्रवर्तक श्रीऋषभदेवने युगके आदिमे मनुष्योकी इसी सचयवृत्तिको लक्ष्यकर प्रत्येक गृहस्थके लिए परिग्रह परिमाण व्रतका निर्देश किया था। उस व्यवस्थामे भोग विलास जीवनका ध्येय न था। भोगपर जोर देनेसे ही व्यवस्थाका आधार 'मौज, मजा और अधिकार हो गया है। जिसका आखिरी नतीजा सघर्ष और यद्धोंका तांता है। इसके विरुद्ध यदि हम अनावश्यक इच्छाओके नियमनपर जोर दे तो जीवनपर नियंत्रण कायम होता है और हमारी जरूरतें सीमित हो जाती है । जरूरतोको सीमित किये बिना यदि कानूनोंके आधारपर उत्पादन और वितरणका प्रवन्ध किया भी गया तो उसमे सफलता नहीं मिल सकती। यह स्मरण रखना चाहिये कि कानूनकी भाषा और उसका पालन करानेके आधार इतने लचर होते है कि मनुष्य अपनी बुद्धिके उपयोगके द्वारा कानूनोंको भङ्ग करके भी वचा रहता है। वास्तवमें नैतिक आचरणका पालन बलपूर्वक नहीं कराया जा सकता । वह भीतरीकी प्रेरणासे ही हो सकता है। अत कानूनसे । अधिक शक्तिशाली और लाभदायक मार्ग आत्मसयम है । जब मनुष्य | अपना और समाजका लाभ समझ कर उसका अनुसरण करने लगता है तो वह स्वयं संयमी बननेकी कोशिश करने लगता है। इस तरह जब सयमी पुरुष ऊंचे स्तरपर पहुंच जाता है तो वह स्वय उदाहरण बनकर दूसरोको भी संयमी बननेकी सतत प्रेरणा देता है और इस तरह समा- । जके नैतिक जीवनको उन्नत बनानेमे निरन्तर योगदान करता रहता है। संयमकी इसी शिक्षाका परिणाम ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहनत है। यदि मनुष्यसमाजकी वासनाओ और लालसामोका नियत्रण न किया जायेगा तो उसका शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य नष्ट हो जायेगा और उसका विकास रुक जायेगा। इस विवेचनसे हम इस नतीजेपर पहुंचते हैं कि जैनधर्ममें प्रत्येक
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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