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________________ जनवर्म गौर दिनको इसी तरह वितावें। इस तरह अष्टमी और चतुर्दशीका दन तथा रात विताकर दूसरे दिन दोपहरको अभ्यागत अतिथियोंको भोजन कराकर एक बार अनासक्त होकर भोजन करे। उपवाससे तलव केवल पेटके ही उपवाससे नही है, किन्तु पाँचो इन्द्रियोके उपवाससे है। आहार वगैरहका त्याग करके भी यदि मनुष्यका चित्त चों इन्द्रियोके विषयोमे रमता है, अच्छे अच्छे स्वादिष्ट भोजन, तुन्दर कामिनी, सुगन्धित द्रव्य और सुन्दर संगीतकी कल्पनामें मस्त रहता ह तो वह उपवास निष्फल है। ६-भोग और उपभोगके साधनोंका कुछ समय या यावजीवनके लिये परिमाण कर लेना चाहिये कि मैं अमुक वस्तु इतने प्रमयतक इतने परिमाणमें भोगूंगा। ऐसा परिमाण करके उससे अधिक स्तुिको चाह नही करना चाहिये। जो वस्तु एकवारही भोगी जा सकती उसे भोग कहते है जैसे फूलोंकी माला या भोजन । और जो वस्तु गार-बार भोगी जा सकती है उसे उपभोग कहते है, जैसे वस्त्र। इन नो ही प्रकारकी वस्तुओंका नियम कर लेना चाहिये । नियम कर इनसे एक तो गृहस्थकी चित्तवृत्तिका नियमन होता है, दूसरे इससे स्तुओका अनावश्यक संचय और अनावश्यक उपयोग रुक जाता है, और वस्तुओंकी यदि कमी हो तो दूसरोंको भी उनकी प्राप्ति सुलभ जाती है। जो मनुष्य भोग और उपभोगके साधनोको कम करके अपनी वश्यकताओको घटा लेता है, आवश्यकताओके घट जानेसे उस अनुष्यका खर्च भी कम हो जाता है। और खर्च कम हो जानेसे उसकी नको आवश्यकता भी कम हो जाती है। तथा धनकी आवश्यकता कम हो जानेसे उमे न्याय और अन्यायका विचार किये विना धन मानेको तृष्णा नही सताती। इसीलिये लिखा है भोगोपभोगकृशनात् कृशीकृतघनस्पृह । बनाय कोट्टपालादि नित्या. क्रूरा करोति क ।' सागारधाः ।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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