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________________ १५० जैनधर्म सन्तोष रक्खे | इसीका नाम ब्रह्मचर्याणुव्रत है । ब्रह्मचर्याणुव्रती अपनी पत्नीके सिवा जितनी भी स्त्रियाँ है, चाहे वे विवाहिता हो, अविवाहिता हो अथवा वेश्या हों, उनसे रमण नहीं करता है और न दूसरोसे ही ऐसा कराता है। ऐसा न करनेका कारण इज्जत आवस्का सवाल नही हैं, किन्तु इस कामको वह अन्तःकरणसे पाप समझता है । जो केवल अपनी मान प्रतिष्ठाके भयसे ऐसे कार्यों से बचता है, वह ऐसे कार्योको बुरा नही समझता और इसलिये जहाँ उसे अपनी मान प्रतिष्ठा जानेका भय नही रहता, वहाँ वह ऐस अनाचार कर बैठता । और कर बैठनेपर कभी कभी धोखेमे मानप्रतिष्ठा भी गवां देता 1 किन्तु जो ऐसे कार्योको पाप समझता है वह सदा उनसे बचा रहता है । इसलिये पाप समझकर ही उनसे बचे रहनेमें हित है । परस्त्रीगमन और वेश्यागमनको बुराइयाँ सब कोई जानते हैं, मगर फिर भी मनुष्य अपनी वासनापर कावू न रख सकनेके कारण अनाचार कर बैठते है। अनेक युवक छोटे लड़कों के साथ कुत्सित काम कर बैठते हैं और अपने तथा दूसरोंके जीवनको धूलमे मिला देते है । कुछ हस्तमैथुनके द्वारा अपनी कामवासनाको तृप्त करते हैं । ये काम तो परस्त्रीगमन और वेश्यागमनसे भी अधिक निन्दनीय है । किन्तु आजकलकी शिक्षाका लक्ष इस तरहके अनाचारोंको रोकनेकी और कतई नही रहा है। शिक्षार्थी अपना जीवन कैसे बिताता है कोई शिक्षक या प्रवन्धक इधर ध्यान नही देता । सब जगह शिक्षाकी भी खानापूर्ति की जाने लगी है । जो ऐसे अनाचारोमे पड़ जाते है वे अपने और दूसरोके आत्मा और शरीर दोनों का ही घात करते है और इसलिये वे किसी भी हिंसक से कम नही । अत. जो अपनी आध्यात्मिक और लौकिक उन्नति करना चाहते है और चाहते है कि समाजमें इस तरहका अनाचार न फैले, उन्हें कामवासनाका केन्द्र केवल अपनी पत्नीको हो बनाना चाहिये और उसके तिवा ससारकी समस्त स्त्रियोंको अपनी माता वहिन या पुत्री समझना चाहिये तथा छोटे लडकोंको अपना भाई या पुत्र समझकर उन्नत बनाना चाहिये |
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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