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________________ चारित्र जो बुराइयां उत्पन्न होती है, उनसे मनुष्य कभी भी नहीं बच सकता । कहा भी है'मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनो देहिन प्रति । हन्तु प्रवर्तते वृद्धिः शकुन्य इव दुधियः॥२७॥ --योगशा० । अर्थात्-'जिसको मांस खानेका चसका पड़ जाता है, उस प्राणीकी बुद्धि दुष्ट पक्षियोके समान दूसरे प्राणियोंको मारने लगती है।' ___ आज मांस भक्षणका बहुत प्रचार है उसका ही यह फल है नि... अपने स्वार्थके पीछे मनुष्य मनुष्यका दुश्मन बना हुआ है । एकक दूसरेका वध करते हुए जरा भी सकोच नहीं होता। अत इससे वचन चाहिये। इस तरह गृहस्थको बस जीवोंकी सकल्पी हिंसाका त्याग जरूर करना चाहिये । अव रह जाती है, उद्योगी आरम्भी और विरोध हिंसा । एक नीची श्रेणीके गृहस्थ के लिये इनका त्याग करना शक्य नहीं है, क्योकि उसे अपने और अपने कुटुम्वियोंके भरण-पोषणक लिये कोई न कोई उद्योग और कुछ न कुछ आरम्भ अवश्य करना पड़ता है, उसके विना उसका निर्वाह नही हो सकता। किन्तु उसे ऐसा ही उद्योग और आरम्भ करना चाहिये जिसमें दूसरे प्राणियोंका कमसे कम कष्ट पहुंचनेकी सभावना हो। इसी तरह विरोधी हिंसासे भी गृहस्थ नहीं बच सकता । यद्यपि वह स्वय किसीसे अकारण विरोध पैदा नहीं करता, किन्तु यदि कोइ उसपर आक्रमण करे ता उससे वचनेके लिये वह बराबर प्रयत्न करेगा। आक्रमणकारीका सामना न करके डरकर घरमें छिप जाना अहिंसाकी निशानी नही है इस मानसिक हिंसासे तो प्रत्यक्ष हिंसा कही अच्छी है। जैनशास्त्रमें तो स्पष्ट लिखा है'नापि स्पष्टः सुदृष्टिर्य. स सप्तभि भयर्मनाक । ---पञ्चाध्यायो। ' 'जैनधर्मका जो सच्चा श्रद्धानी है वह सात प्रकारके भयोसे सर्वथा अछूता रहता है।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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