SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नपर्न अहिंसाकी इस व्याख्याने जनुनार अपनेने किनी जीववा घात हो जाने या किनके दुमी हो जानेपर भी तबतक हिना नहीं बहलाती नवता अपने भाव उसे मारने या दुसी करनेके न हो, अथवा हम अपना कार्य करते हुए अनावधान न हो । किन्तु यदि हमारे भाव विसीको आरने या कष्ट पहुंचाने के हो, परन्तु प्रयत्न करने भी हम उस कुछ भी अनिष्ट नही कर सकें, तब भी हम नही समझे जायेंगे। योकि जो दूसरोंका बुरा करना चाहता है वह सबसे पहले अपना बुरा करता है । जैसा कि कहा है qlaşanğıcanlarımı 'स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राप्यन्तराणा तु पश्चाद् स्याद्वा न वा वय ॥ ० ० २०९ ॥ अर्थात् - 'प्रमादी मनुष्य पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता १६२ पीछे दूसरे प्राणियोका घात हो या न हो ।' " असलम जैनधर्ममे हिंसाको दो भागों में वोट दिया गया हैव्यहिता और भावहता । जब किनीको मारने या मनाने अथवा साववानताका भाव न होनेपर भी दूसरेका घात हो जाता है तब उसे द्रव्यहसा कहते है और जब किसीको मारने या सताने अथवा पसावधानताका भाव होता है तब उसे भावहता कहते है । वास्तवमें हाही हिंसा है । द्रव्यहिताको तो केवल इसलिये हिता कहा कि उसका भावहता के साथ सम्बन्ध है । किन्तु द्रव्यहसाके होनेपर माता अनिवार्य नही है, अर्थात् जिस नादमीके द्वारा किसीका रात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुँचता है उस आदमीका इरादा ही ऐसा करनेका था ऐसा एकान्तरूपसे नही कहा जा सकता । अत. जहाँ कर्ताके भावों में हिंसा है वही हिंसा है, उसके द्वारा कोई मारा जाय या न मारा जाये । और जहाँ कर्ता के भावोंमें हिता नही है वहाँ हिंसा भी नही है, भले ही उसके निमित्तते किसीकी जान चली जाये । अगर द्रव्यहसा और भावहिंसाको इस प्रकार अलग न किया गया होता तो कोई भी अहिंसक न वन सकता और यह शंका बराबर खड़ी रहती
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy