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________________ १६० जैनधर्म किन्तु दूसरोकी नही। मुझे स्वादिष्टसे स्वादिष्ट पदार्थ खानेको मिलने चाहिये चाहे दूसरोको सूखा कौर भी न मिले । मेरे खजानेमे बेकार सोने-चाँदीका ढेर लगा रहना चाहिये चाहे दूसरोके तनपर फटा चीथडा भी न हो। मेरी साहूकारी सैकडोको गरीव वनाती है तो मुझे क्या? मेरे भोगविलासके निमित्तसे दूसरोके प्राणोंपर वन आती है तो मुझे क्या हमारे साम्राज्यवादकी चक्कीमे देशका देश पिस रहा है तो हमें क्या? व्यक्ति, समाज और राष्ट्रकी ये भावनाएं ही दूसरे व्यक्तियो, समाजो और राष्ट्रोका निर्दलन कर रही है। इनके कारण किसीको भी सुखसाता नहीं है। परस्परमे अविश्वासकी तीन भावना रात दिन आकुल करती रहती है। सब अवसरकी प्रतीक्षामें रहते है कि कब दूसरेका गला दबोचा जाय। ये सब हिंसक मनोवृत्तिका ही दुष्परिणाम है जो विश्वको भोगना पड़ रहा है। इससे बचनेका एक ही उपाय है और वह है 'जियो और जीने दो' का मंत्र । उसके विना विश्वमे शान्ति नहीं हो सकती। , कुछ लोग अहिंसाको कायरताकी जननी समझते है और कुछ उसे अच्छी मानकर भी मशक्य समझते है। उनका ऐसा ख्याल है कि अहिसा है तो अच्छी चीज मगर वह पाली नहीं जा सकती। ये दोनो ही ख्याल गलत है। न अहिंसा कायरताको पैदा करती है और न वह ऐसी ही है कि उसका पालन करना अशक्य हो। अहिंसापर गहरा विचार न करनेसे ही ऐसी धारणा बना ली गई है। हिंसा न करनेको अहिंसा कहते है। किन्तु अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दुःखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती। ससारमें सर्वत्र जीव पाये जाते है और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते है फिर भी जैनधर्मके अनुसार इसे तबतक हिंसा नहीं कहा जा सकता जबतक अपने हिसारूप परिणाम न हो । वास्तवमें हिसारूप परिणाम ही हिंसा है। अर्थात् जबतक हम प्रमादी और अयत्नाचारी न हो तबतक किसीका घात हो जान अमावसे हम हिंसक नही कहलाये जा सकते।
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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