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________________ सिद्धान्त वे आम वृक्षकी अपेक्षा जल्दी पक जाते है। इसी तरह कभी कभी नियत समयसे पहले कर्मका विपाक हो जाता है। इसे ही उदीरण कहत है। उदीरणाके लिये पहले अपकर्षण करणके द्वारा कर्मकी स्थितिको कम कर दिया जाता है, स्थितिके घट जाने पर कर्म नियन समयसे पहले उदयमे आ जाता है। जब कोई असमयमे ही मर जाता है तो उसकी अकालमत्यु कही जाती है। इसका कारण आयुकर्मकी उदीरणा ही है। स्थितिका घात हुए बिना उदीरणा नहीं होती। सक्रमण-एक कर्मका दूसरे सजातीय कर्मरूप हो जानेको सक्रमण करण कहते है। यह सक्रमण मूल भेदोंमें नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप नहीं होता और न दर्शनावरण ज्ञानावरणरूप होता है। इसी तरह अन्य कर्मोके बारेमे भी जानना। किन्तु एक कर्मका अवान्तर भेद अपने सजातीय अन्य भेदरूप हो सकता है। जैसे, वेदनीय कर्मके दो । भेदोंमेंसे सातवेदनीय असातवेदनीय रूप हो सकता है और असातवेद, नीय सातवेदनीयरूप हो सकता है। यद्यपि सक्रमण एक कर्मके अवान्तर, भेदोंमे ही होता है, किन्तु उसमे अपवाद भी है। आयुकर्मके चार भेदोंमें परस्परमे सक्रमण नही होता । नरकगतिकी आयु वाँध लेनेपर जीवको नरकगतिमे ही जाना पड़ता है, अन्य गतिमे नही । इसी प्रकार बाकीकी तीन युमोंके बारेमे भी जानना चाहिये। उपशम-कर्मको उदयमें आ सकनेके अयोग्य कर देना उपशम करण है। निधत्ति-कर्मका संक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है। • निकाचना-उसमे उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरण • का न हो सकना निकाचना है। ___कर्मकी इन अनेक दशाओके सिवाय जैनसिद्धान्तमें कर्मका स्वामी कर्मोकी स्थिति, कब कौन कर्म बंधता है ? किसका उदय होता है, किस कर्मकी सत्ता रहती है, किस कर्मका क्षय होता है आदि बातोका विस्तारसे वर्णन है। कान हो न अनेक दशा में बंधता
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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