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________________ सिद्धान्त १३९ जाती है। यदि किसी पेडका दूध लगा हो तो कुछ देरमे झडती है और यदि कोई गोंद लगी हो तो बहुत दिनोमे झडती है। साराश यह कि चिपकानेवाली चीजका असर दूर होते ही चिपकनेवाली चीज स्वय सड़ जाती है। यही वात योग और कपायके सम्बन्वमें भी जाननी चाहिये। योगशक्ति जिस दर्जेकी होती है आनेवाले कर्मपरमाणुमोकी संख्या भी उसीके अनुसार कमती या वढती होती है। यदि योग उत्कृष्ट होता है तो कर्मपरमाणु भी अधिक तादादमे जीवकी ओर आते है। यदि योग जघन्य होता है तो कर्मपरमाणु भी कम तादादमे जीवकी ओर आते है। इसी तरह यदि कपाय तीन होती है तो कर्मपरमाणु जीवके साथ बहुत दिनोतक बंधे रहते है और फल भी तीन देते है। यदि कपाय हल्की होती है तो कर्मपरमाणु जीवके साथ कम समय तक बंधे रहते है और फल भी कम देते है। यह एक साधारण नियम है किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी है। Vइस प्रकार योग और कषायसे जीवके साथ कर्मपुद्गलोंका वन्ध होता है । वह वन्य चार प्रकारका है-प्रकृतिवन्ध, प्रदेशवन्ध, स्थितिवन्ध और अनुभागवन्ध । बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध है। उनकी संख्याका नियत होना प्रदेशवन्य है। उनमें कालकी मर्यादाका पड़ना, कि ये अमुक कालतक जीव के साथ बंधे रहेगे, स्थितिवन्ध है और उनमें फल देनेकी शक्तिका पड़ना अनुभागवन्व है। कोंमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना तथा उनकी सख्याका कमती वढती होना योगपर निर्भर है। तथा उनमे जीवके साथ कम या अधिक कालतक ठहरनेकी शक्तिका पड़ना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका पडना कषायपर, निर्मर है। इस तरह प्रकृतिवन्ध और प्रदेशवन्ध तो योगसे होते है, और स्थितिवन्ध तथा अनुभागवन्ध कपायसे होते है। इनमें से प्रकृतिवन्धके आठ भेद है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। ज्ञानावरण नामका
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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